संथाल परगना।
प्रेस की आजादी का सवाल एक जमाने से विमर्श की परिधि में रहा है. संताल परगना के संदर्भ में अभिव्यक्ति की चेतना की बात करें तो हमें सबसे पहले स्थानीय आदिम जनजातियों को निरखना चाहिए.
अभिव्यक्ति की चेतना ने ही संताल परगना की दुर्लंघ्य उपत्यकाओं में सदियों से अपना अस्तित्व तलाशते श्रम और समर्पण की सजीव ताम्रवर्णी प्रतिमाओं को 'मानवीय नीड़' के रूप में आवासीय बस्तियां बसाने का हुनर दिया. इसी कौंध ने नीम-अंधेरी गुफाओं में 'चकमक'(पत्थरों के घर्षण) का उजियारा किया और पाषाणी भित्तियों पर अनगढ़ आदिम चित्र उकेरने का हुनर बख्शा.इसी ने आदिवासियों-मूलवासियों के अधरों पर वंशी की तान, अंगुलियों में तूलिका की स्फीति और पैरों में नृत्य का स्पंदन भरा. लेकिन,जब हम अभिव्यक्ति के आधुनिक शिल्प-संज्ञान के इच्छुक हों तो हमें ब्रिटिश युग की ईजाद, मुद्रण की एक पूरी ठोस और प्रभावी तकनीक को परखना होगा. सामान्य तौर पर इस तकनीक को 'प्रेस' कहा गया जिसका मुख्य उद्देश्य सूचनाओं को सार्वजनिक करना था. लेकिन, जनसरोकारों की छटपटाहट को शब्दबद्ध करने की समझ रखने वाली विभूतियों की बदौलत बहुत जल्दी इसमें सामाजिक जागरण और अंततः राजनीतिक आजादी का व्यापक लक्ष्य शामिल हो गया.इस क्रम में यदि समय के कुछ खास चरणों का ध्यान रखा जाए तो इसकी ऐतिहासिकता को समझने में आसानी हो सकती है.ये चरण निम्नवत हैं-
1) पहला चरण: 1855-1905 ई.
2) दूसरा चरण: 1905-1935 ई.
3) तीसरा चरण:1935-1947 ई.
सन् 1764 ई. में बक्सर की लड़ाई के बाद पेशेवर ईस्ट इंडिया कंपनी का एक विलक्षण कायांतरण हुआ.उसने एक दूरगामी सोच के साथ सकल भारतीय समाज में आमूलचूल परिवर्तन करना शुरू कर दिया.इसका एक त्वरित उद्देश्य औपनिवेशिक शासन की नीतियों के लिहाज से भारतीयों को शारीरिक और मानसिक स्तर पर तैयार करना था.कंपनी बहादुर की इस साज़िश पर पहली अंगुली कलकत्ते से प्रकाशित 'कलकत्ता रिव्यू' नामक अखबार ने धरी. 1855 ई.में कंपनी बहादुर ने कहलगांव, पीरपैंती, राजमहल आदि क्षेत्रों में रेल पटरियों को बिछाने का काम शुरू किया था. गोरे ठीकेदारों और उनके जालिम कारिंदों की हिम्मत इतनी बढ़ गई थी कि उन्होंने अनेक संताल महिला श्रमिकों के साथ बलात्कार कर डाला! सन् 1855 में 'कलकत्ता रिव्यू' में दो संताल महिलाओं के शीलहरण का सनसनीखेज समाचार प्रकाशित हुआ जिसने 'संताल-विद्रोह' की आग को और भड़का दिया.
उन दिनों संताल परगना में ऊर्दू ज़बान और तहजीब का अच्छा-खासा प्रभाव था.अदालती तहरीरों, जमीन-जायदाद के दस्तावेजों और महकमों की दरख्वास्तों में फारसी के बहुविध प्रचलन के कारण गैर मुस्लिम भी इस भाषा से एक हद तक वाकफियत रखते थे. उन दिनों 'अखबार-ए-बिहार' इधर का एक पसंदीदा अखबार हुआ करता था. 12 पृष्ठ के इस अखबार का नाम पहले 'पटना हारकरा' था. इसका पहला अंक 21 अप्रैल,1855 को निकला था. 1 सितंबर, 1855 को इसका नाम 'अखबार-ए-बिहार' हो गया. इसके प्रकाशक शाह अबू तुराब और व्यवस्थापक शाह विलायत अली थे.इनके 'अखबार-ए-बिहार' के सितंबर,1856 , अक्तूबर,1856 , नवंबर,1856 , दिसंबर,1856 , जनवरी, 1857 , फरवरी,1857 , मार्च,1857 , अप्रैल 1857 ,मई1857 , जून,1857 तथा जुलाई,1857 के अंकों में 'गदर' के संबंध में कई अहम समाचार प्रकाशित हुए थे. इस अखबार ने मंगल पाण्डेय की शहादत, रोहिणी (देवघर) की बगावत और वीर कुंवर सिंह की मुखालिफत का विवरण देकर तत्कालीन स्वतंत्रताकामी समाज को झकझोर डाला था.
सन् 1912 ई.तक कलकत्ता भारत की राजधानी रही. इसकारण, संताल परगना में बांग्ला का प्राधान्य रहा. बांग्ला के सुनामधन्य पत्रकार एवं शिक्षक पं. सखाराम गणेश देउस्कर (1869 -1912 ई.) को प्रेस की आजादी की एक बड़ी कीमत चुकानी पड़ी.देवघर के अनुमंडल पदाधिकारी मिस्टर हार्ड की कुछ दमनकारी नीतियों की 'हितवादी' पत्र में आलोचना के कारण उनकी नौकरी चली गई और उन्हें देवघर छोड़कर कलकत्ता आना पड़ा.काफी कठिनाइयां झेलने के बाद सन् 1904 ई.में उन्होंने 'देशेर कथा'(बांग्ला) नामक ऐसी किताब लिख दी जो बड़े सलीके और तथ्यपूर्ण ढंग से अंग्रेजी शासन की कलई खोलती थी. इसी किताब से पहली बार 'स्वराज' शब्द की कांति उभरी.सन् 1908 ई.में 'देशेर कथा' का हिंदी अनुवाद मुंबई की श्रीखेमराज श्रीकृष्ण दास नामक प्रकाशन संस्था ने प्रकाशित किया.अनुवादक थे 'सुदर्शन'(हिंदी) पत्र के संपादक पंकज माधव प्रसाद मिश्र एवं 'व्यंकटेश समाचार'(हिंदी) के संपादक अमृतलाल चक्रवर्ती.लेकिन,जब 400 पृष्ठों और 3000 प्रतियों वाली 'देशेर कथा' का पांचवां संस्करण प्रकाशित हुआ तब मिस्टर जे.ई.वी.लेविंग, बंगाल सरकार के मुख्य सचिव के हवाले से दिनांक 22 -09 -1910 को निकाली गई राजनीतिक अधिसूचना संख्या 2840 (पी.डी.) के माध्यम से पुस्तक को प्रतिबंधित घोषित कर दिया गया.लेकिन,तब तक लेखक और उसकी पुस्तक का अभीष्ट पूरा हो चुका था.
संताल परगना के साहेबगंज के लाल महेश नारायण (1885 -1907 ई.) जनवरी, 1894 से प्रकाशित 'बिहार टाइम्स' के संपादक बने.राष्ट्रीयता के संदेश के साथ उन्होंने अपनी कलम से पृथक बिहार के आंदोलन को आगे बढ़ाया. जुलाई,1906 ई.से 'बिहार टाइम्स' का नाम बदलकर 'बिहारी' रख दिया गया.अखबार के संपादक तो महेश नारायण ही रहे,पर आर्थिक उत्तरदायित्व सच्चिदानंद सिन्हा ने स्वीकार कर लिया.
ईसाई मिशनरियों ने संताल परगना में धर्म प्रचार के साथ स्थानीय रीति-रिवाज पर शोध एवं प्रकाशन के लिए व्यवस्थित प्रेस(छापाखाना) बिठाए.संताली में लिखित साहित्य की एक शुरुआत रेवरेंड डॉ.जे.रूफिलिप्स रचित 'एन इंट्रोडक्शन टू संताल लैंग्वेज'(संताली भाषा का एक परिचय')से मानी जाती है.इसका प्रकाशन सन् 1852 ई.में हुआ.
इस क्रम में 26 दिसम्बर,1867 को दुमका से लगभग 50 कि.मी.दूर बेनागड़िया में एक ईसाई मिशनरी की स्थापना की गई.इसी स्थान पर डा.ग्राहम नामक ईसाई द्वारा दिए गए दान से सन् 1879 ई. में एक छोटा-सा प्रेस डाला गया.इसी प्रेस से संताली भाषा की आरंभिक किताबें छापी गईं.बेनागड़िया मिशनरी के तत्कालीन प्रभारी रेवरेंड एल.ओ.स्क्रेफ्स्र्रूड स्लड (1849 -1910 ई.) की नवज्ञान आधारित मुद्रण-कार्य में बड़ी गहरी दिलचस्पी थी.
यहां से संताल परगना में प्रेस की भूमिका से पुन:अनेक सेनानियों, साहित्यकारों और संवाददाताओं के नाम सूत्रबद्ध होते हैं. पर, स्थानाभाव के कारण शाब्दिक अभिव्यक्ति के संताल-संदर्भ को अभी यहीं विराम दिया जाता है.