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क्या बिहार में सियासी असर पैदा करेगी कन्हैया की रैली !

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रवि प्रकाश    BY: रवि प्रकाश

 
तारीख 27 फरवरी, साल 2020 मौका था संविधान बचाओ देश बचाओ रैली का. पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान में महात्मा गांधी की विशाल मूर्ति से कुछ ही दूरी पर बने मंच पर उनके प्रपौत्र तुषार गांधी ने कहा कि तब वहां मौजूद भीड़ देश की सियासत को नया संदेश देने जा रही है. उनके साथ मंचासीन मेधा पाटकर, शबनम हाशमी, कन्नन गोपीनाथन सरीखे लोगों ने भी इसी बात को विस्तार दिया. वक्ताओं ने कहा कि वोट की ताकत सबसे बड़ी होती है. अब गंदी सियासत करने वालों को उखाड़ फेंकने का वक्त है. यह हमारे-आपके वोट से ही मुमकिन होगा.
 
करीब छह घंटे तक चली रैली के दौरान सीपीआई नेता और जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय (जेएनयू) छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार भी मंच पर मौजूद थे. दरअसल, यह रैली उनकी जन गण यात्रा के समापन के मौके पर आयोजित की गई थी. इसमें भारी भीड़ उमड़ी थी.
 
बाद में कन्हैया कुमार ने भी जोरदार भाषण दिया. वे देश की मौजूदा नरेंद्र मोदी सरकार पर आक्रामक हुए. गृहमंत्री अमित शाह और उनके परिवार पर हमला बोला. उन्होंने कहा कि राष्ट्रीय नागरिकता कानून (सीएएए), नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) और जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) के बहाने देश के संविधान पर हमला किया जा रहा है. इसके वापस लेने तक हमें लड़ाई लड़नी होगी. उनके भाषण के दौरान खूब तालियां बजीं. नारे लगाए गए. नयी सियासत का संकल्प लिया गया.

कन्हैया की सियासत

क्या इस रैली के बहाने कन्हैया की सियासत का नया अध्याय शुरू हुआ है. क्या यह रैली उस सांवले-से नाटे कद के लड़के की लोकप्रियता की मुनादी है. क्या उनकी तैयारी बिहार विधानसभा के चुनाव में विकल्प पेश करने की है. उनकी रैली के बाद ऐसे कई सवाल पटना के सियासी गलियारे में बहस का मुद्दा बने हुए हैं. यह चर्चा चौक-चौराहों से लेकर बेली रोड, सर्कुलर रोड और अणे मार्ग जैसी सड़कों पर बनी कोठियों के अंदर और बाहर होने लगी है.

इसका क्या असर होगा

चर्चित रंगकर्मी अनीस अंकुर मानते हैं कि कन्हैया कुमार ने राजनीति का नया नैरेटिव गढ़ दिया है. इसका दूरगामी प्रभाव पड़ेगा. उन्होंने अपनी लोकप्रियता साबित की है.
 
अनीस अंकुर ने कहा – बिहार की सियासत का पारंपरिक मुल्ला-मौलवी माडल अब फैज-फिराक के दौर में आ गया है. यह पटना में कल हुई संविधान बचाओ-देश बचाओ रैली का ताजा असर है. वे कन्हैया ही हैं, जिन्होंने एक-दूसरे के धुर विरोधी नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव को राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) के मुद्दे पर एक साथ खड़े होने पर विवश कर दिया. पिछले 25 फरवरी को बिहार विधानसभा में आनन-फानन में हुई यह एक आश्चर्यजनक घटना है. जाहिर है कि इनलोगों को कन्हैया से खतरा महसूस होता है.
 
बकौल अनीस, कन्हैया ने लालू यादव के सोशल जस्टिस की लड़ाई को कारपोरेट के खिलाफ खड़ा कर दिया है. नेहरु एरा (युग) के बाद उन्होंने समग्र मुस्लिम समाज में सबसे ज्यादा लोकप्रियता हासिल की है. लालू यादव भी मुसलमानों में लोकप्रिय हैं, लेकिन उनकी लोकप्रियता पुरुषों तक सीमित रही. कन्हैया कुमार मुस्लिम औरतों में भी लोकप्रिय हो रहे हैं. यह बड़ी घटना है कि मुस्लिम औरतें उन्हें सुनने के लिए लाइन लगाकर गांधी मैदान तक पहुंची. उन्होंने अप्रासंगिक मान लिए गए वामपंथ की रुदाली गाने की जगह वाम विकल्प पेश करने की कोशिश की है. इसे हल्के में लेना भूल होगी.
 
उन्होंने यह भी कहा – कन्हैया ने भाजपा के राजनीतिक आख्यान को जमीनी स्तर पर चुनौती दी है. यह बात इसलिए और महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि हिन्दी पट्टी में बिहार इकलौता वैसा राज्य है, जहां बीजेपी कभी अकेले सत्ता में नहीं आयी. उन्होंने बिहार बीजेपी को भी मोदी-शाह के छाये से अलग कर स्वतंत्र अस्तित्व दिया है. यह ऐतिहासिक घटना है कि बीजेपी की सरकार द्वारा संसद में पेश किए गए प्रस्तावों और कानूनों के खिलाफ बीजेपी के ही विधायकों ने बिहार विधानसभा में प्रस्ताव पारित कराया. इस कवायद ने बिहार मे बीजेपी को सत्ता से और दूर करने का रास्ता तैयार कर दिया है.

क्या सच में भाजपा को खतरा है

बिहार भाजपा के प्रवक्ता और वरिष्ठ पत्रकार डा निखिल आनंद ऐसा नहीं मानते. उनका मानना है कि बिहार में अंतिम सांसें गिन रहा वामपंथ कन्हैया के कंधे पर सवार होकर अपनी राजनीति खड़ी करना चाह रहा है. इससे भाजपा को रत्ती भर भी खतरा नहीं है. इसका चुनाव पर कोई असर नहीं होगा.
 
डा निखिल आनंद ने कहा – जेएनयू छात्र संघ अध्यक्ष के तौर पर असफल और देश की बर्बादी व कश्मीर की आजादी के लिए नारे लगाकर लोकप्रिय हुए कन्हैया लिबरल टुकड़े-टुकड़े गैंग के पोस्टर बाय हैं. साथ ही बिहार के सेंटर टू लेफ्ट पालिटिकल खेमे में राजद के वर्चस्व से हलकान और परेशान कांग्रेसी, वामपंथी तथा कुछ खास तथाकथित प्रोग्रेसिव लोग महागठबंधन की राजनीति में लालू यादव के बेटे तेजस्वी को कमतर साबित करने के लिए उनके मुकाबले कन्हैया को तुरुप का पत्ता बनाने में लगे हैं. इससे महागठबंधन की सियासत पर इसर पड़े, न पड़े लेकिन भाजपा या एनडीए की राजनीति कोई फर्क नहीं पड़ेगा.

नीतीश की सियासत

हालांकि, जाने-माने उपान्यासकार रत्नेश्वर का मानना है कि भले ही कन्हैया की रेली में उन्हें सुनने के लिए कुछ हजार लोगों की भीड़ आ गयी हो, लेकिन यह भीड़ चुनावों पर असर डालने में कारगर साबित नहीं होगी. इससे सिर्फ कन्हैया की व्यक्तिगत ब्रांडिंग हुई है, जिसका असर कुछ साल बाद दिख सकता है.
 
रत्नेश्वर ने कहा – वामपंथी पार्टियां भी विकल्प खड़ा करने की हालत में नहीं हैं. उनका सांगठनिक ढांचा खत्म हो चुका है. वहीं दूसरी ओर नीतीश कुमार ने एनआरसी और एनपीआर के मौजूदा स्वरुप के खिलाफ विधानसभा में प्रस्ताव पारित कराकर बड़ा दांव खेला है. उनके इस कदम से बीजेपी भी इंबैरेस हुई है. वे दरअसल यह बताना चाहते हैं कि वे सभी समुदायों की सियासत कर रहे हैं.
 
उन्होंने कन्हैया के मसले को उनकी रैली के आयोजन से पहले ही हल्का कर दिया था. उन्होंने तो आरजेडी के लिए भी संकट पैदा कर दिया है.
 
बकौल रत्नेश्वर, नीतीश कुमार ने अपने मुख्यमंत्रित्व में सिर्फ पुल ही नहीं बनाए, लोगों का माइंडसेट भी बदला है. ऐसे में उन्हें चुनौती दे पाना इतना आसान नहीं है, जो किसी एक रैली से तय किया जा सके.

लेखक रवि प्रकाश झारखण्ड के वरिष्ठ पत्रकार हैं और बीबीसी संवाददाता के रूप में कार्यरत हैं

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