Opinion
इतना तो मान ही लेना चाहिये कि किसान आंदोलन ने कारपोरेट की मुट्ठियों में समाते अर्थतंत्र और इस प्रक्रिया की आधारभूमि बन चुके राजनेता-कारपोरेट के अनैतिक गठजोड़ को भारत-भूमि पर पहली बार सशक्त और गंभीर चुनौती दी है। शहरों से गांवों तक पसरता यह असंतोष अब व्यापक रूप अख्तियार करता जा रहा है जिसमें किसानों के अलावा वे छोटे व्यापारी भी शामिल होते जा रहे हैं जो कृषि अर्थव्यवस्था के अनिवार्य अंग रहे हैं और नए कृषि कानूनों से जिनके सामने बेरोजगार होने का खतरा मंडराने लगा है।
कल यूट्यूब पर हो रही किसी परिचर्चा में एक बड़े किसान नेता बता रहे थे, "हमने हिंसाब लगाया है कि एक फसल में लगभग 50 हजार करोड़ रुपये की हकमारी देश भर के किसानों से की जाती है क्योंकि उन्हें गैरवाजिब कीमतों पर अपनी उपज बेचनी पड़ती है।" इस हिंसाब से प्रत्येक वर्ष लगभग सवा-डेढ़ लाख करोड़ रुपयों की चपत किसानों को लगाई जाती है। वे न्यूनतम कीमत के लिये अपनी लड़ाई लड़ ही रहे थे कि इस कृषि बिल ने एक नया और अपेक्षाकृत बड़ा संकट उनके सामने उपस्थित कर दिया।
लड़ाई यहीं है। किसानों से औने-पौने मूल्य पर खरीदी कर ये आढ़तिये और बाजार के अन्य छोटे खिलाड़ी जो प्रति वर्ष सवा-डेढ़ लाख करोड़ के वारे-न्यारे करते रहे हैं, वह अब उनकी नहीं, बल्कि बड़े कारपोरेट घरानों की जेब में पहुंचाने की सरकार की योजना है।
यानी, कृषि पर कारपोरेट का फंदा कसने के बाद कृषि अर्थव्यवस्था से जुड़े बाजार के लाखों छोटे खिलाड़ी परिदृश्य से बाहर हो जाएंगे और किसानों का संगठित और व्यवस्था समर्थित शोषण करने कुछ मुट्ठी भर कारपोरेट शक्तियां आगे आ जाएंगी। वे मनमानी कीमत पर किसानों से अनाज की खरीद करेंगी जिसके असीमित संग्रहण का लाइसेंस कृषि कानून उन्हें देने जा रहा है। फिर, बाजार की चाल को निर्देशित करते हुए वे अन्न की कीमत बेतहाशा बढाएंगे और मनमानी कीमत पर लोगों को अनाज बेचेंगे। सिर्फ इस व्यवसाय से उन्हें हर वर्ष लाखों करोड़ रुपयों का मुनाफा होगा और देश का पूरा कृषि तंत्र उनकी मुट्ठियों में कैद होगा।
इसे ही कहते हैं चित भी मेरी पट भी मेरी। मेहनत और पूंजी किसानों की और असल मुनाफा बड़े कारपोरेट घरानों का। बीच की कड़ी जो लाखों छोटे व्यापारी हैं, जिनका उदय हरित क्रांति के बाद किसान-व्यापारी युग्म के एक घटक के रूप में हुआ है, वे पूरी तरह बेरोजगार हो जाएंगे।
भारत अब इस मुहाने पर आ खड़ा हुआ है जहां बड़ी कारपोरेट शक्तियां सब कुछ अपनी मुट्ठियों में समेट लेने की ताकत हासिल करती जा रही है।
खुदरा व्यापार का क्षेत्र भी इन्हीं में से एक है। बाजार के बड़े खिलाड़ी एक-एक कर इस क्षेत्र में भी अपना आधिपत्य कायम करते जा रहे हैं और लाखों छोटे खुदरा दुकानदारों के सामने अस्तित्व का संकट आ खड़ा हुआ है। अब चायपत्ती के पैकेट से लेकर सस्ते-महंगे टीशर्ट तक, सस्ते साबुन की टिक्कियों से लेकर महंगे सौंदर्य प्रसाधन तक बड़े कारपोरेट घराने ही खुदरा तौर पर भी बेचेंगे।
आजकल अक्सर हम अखबारों में ऐसी खबरें पढ़ते-देखते रहते हैं कि देश के शीर्ष कारपोरेट घराने खुदरा बाजार में अपनी दखल और अपना आधिपत्य किस तरह बढाते जा रहे हैं और इसके नतीजे में छोटे दुकानदारों के सामने किस तरह जीविका का संकट गहराता जा रहा है।
यहां तक कि अब फल और सब्जियों के खुदरा व्यापार पर भी उन्हीं बड़ी शक्तियों का प्रवेश होता जा रहा है। याद करें शाहरुख खान का एक विज्ञापन, जो हमें बताते हैं कि बस एक मैसेज करना है, चंद मिनटों में खुदरा सामग्रियां, फल और हरी सब्जियां सहित, लेकर कारपोरेट की गाड़ी हमारे दरवाजे पर हाजिर होंगी।
खुदरा तौर पर किराना सामग्रियां या फल-सब्जियां बेचने वाले धीरे-धीरे गायब होते जाएंगे और हम उन्हें बिल्कुल बदले हुए अवतार में तब देखेंगे जब वे कंपनी की वर्दियां पहने हुए, जिस पर कंपनी का लोगो भी चस्पां होगा, कंपनी की ही गाड़ी में माल लाद कर हमारे दरवाजे पर होंगे…महज एक नौकर के रूप में, जिनका वेतन कितना होगा यह आज की तारीख में किसी भी बड़े मॉल में वर्दी पहने किसी भी कर्मचारी से पूछ कर पता किया जा सकता है।
जो आज छोटे आढ़तिये हैं, छोटे किराना दुकानदार हैं, फल-सब्जियों के विक्रेता हैं, कॉपी-कलम-पेंसिल बेचने वाले हैं, वे क्रमशः बाजार के परिदृश्य से ओझल होते जाएंगे और किसी कम्पनी के बेबस कर्मचारी के रूप में नया अवतार लेते जाएंगे।
नौकरी की अमानवीय शर्त्तों और काम के घण्टों को लेकर आवाज उठाना गुनाह होगा। परिश्रम का आधिक्य और वेतन इतना कम कि क्या खाएं, क्या पहनें, बच्चों को कैसे पढ़ाएं, इसी उधेड़बुन में भरी जवानी में बुढापा घेर लेगा।
इधर, खबरें आ रही हैं कि जबसे सरकार ने एक देश एक टैक्स की मुहिम छेड़ी है, अब बड़े कारपोरेट घराने प्राइवेट स्कूलों के बिजनेस में भी उतरने लगे हैं। जल्दी ही हम इन घरानों के स्कूलों की देशव्यापी चेन का विस्तार होते देखेंगे। उनकी चमक दमक, उनकी पूंजी की धमक के आगे छोटी पूंजी वाले निजी स्कूलों के संचालक जल्दी ही धराशायी हो जाएंगे। जो आज अपने मालिकाना हक वाले स्कूल में 'डायरेक्टर' की बोर्ड लगा अपने ऑफिस में ठाठ से बैठे नजर आ रहे हैं वे कल किसी कंपनी के स्कूल में नौकरी करते या फिर बीड़ी-तमाखू के किसी बड़े स्टाकिस्ट की एजेंटी करते नजर आएंगे।
कारपोरेट संचालित बड़े और महंगे निजी अस्पतालों की चेन देश के हर बड़े और मंझोले शहरों में खुलती जा रही हैं, जिनकी ओर किसी निर्धन का झांकना भी गुनाह है। इनकी संख्या बढ़ती जा रही है, बढ़ती जाएगी और इनकी लूट के किस्से तो सरे आम कहे-सुने जाते रहे हैं। बड़े बड़े डॉक्टर इनके स्टाफ नहीं, इनके एजेंट बन चुके हैं।
यानी, बाजार के हर क्षेत्र पर कब्जा…क्या थोक और क्या खुदरा व्यापार, क्या उत्पादन और क्या वितरण तंत्र, हर क्षेत्र में बड़ी कारपोरेट शक्तियों की ही मालिकाना उपस्थिति। बाकी तमाम लोग उनकी नौकरी बजाएंगे। सरकार के शब्दों में, "खुदरा व्यापार में कारपोरेट की पूंजी नए रोजगारों का सृजन करेगी।"
इस कोरोना काल में, जब पूरा देश लॉक डाउन में घर के भीतर कैद रहा, सरकार द्वारा आनन फानन में श्रम कानूनों में कई संशोधन कर लिया गए। जैसे, कोई कम्पनी किसी भी स्थायी स्टाफ को कभी भी अस्थायी में तब्दील कर सकती है, कभी भी किसी को नौकरी से हटा सकती है, आउटसोर्सिंग पर नियुक्त कर्मियों को कंपनी के कर्मियों वाली सुविधाएं नहीं मिलेगी, 300 से कम कर्मियों वाली कंपनी को छंटनी के पहले सरकार के श्रम विभाग से कुछ नहीं पूछना होगा आदि आदि।
यानी, बिजनेस को आसान बनाने के नाम पर बेबस कर्मचारियों के साथ मनमाना व्यवहार करने की छूट।
और बिजनेस…?
उसे बस बड़े कारपोरेट घरानों के चंगुल में सौंप देना है। हर तरह का बिजनेस। यहां तक कि अन्न के उत्पादन, संग्रहण और वितरण-विपणन तक पर कारपोरेट शक्तियों का कब्जा।
इन सन्दर्भों में किसान आंदोलन कारपोरेट हितैषी सरकार के सामने बड़ी चुनौती बन कर आ खड़ा हुआ है। अगर सरकार झुकती है तो किसानों की जीत उदाहरण बन कर छोटे व्यापारियों को उत्साहित करेगी जिनके अस्तित्व पर सरकारी नीतियां खतरा बन कर आ खड़ी हुई हैं। फिर तो, दबाए-सताए जा रहे अन्य वर्ग भी उठ खड़े होने की मानसिक-भावनात्मक ऊर्जा प्राप्त कर सकते हैं।
इस निर्धन बहुल देश में किसान आंदोलन से प्रेरणा लेकर अगर शिक्षा के कार्पोरेटाइजेशन के विरुद्ध छात्र आगे आने लगे तो सरकार के लिये बड़ी मुश्किल खड़ी हो सकती है। बड़े ही जतन से नई शिक्षा नीति का ड्राफ्ट तैयार किया गया है जिसके प्रावधान निर्धनों की विशाल जमात को शिक्षा की मुख्य धारा से ही बाहर करने की बातें करते हैं।
फिर तो…असंतोष की बयार आंदोलन की शक्ल में अगर बहने लगे तो उस एजेंडा का क्या होगा जिस पर चलना सरकार का प्राथमिक लक्ष्य है…शिक्षा, चिकित्सा, सार्वजनिक परिवहन से लेकर कृषि सहित हरेक क्षेत्र को बाजार के हवाले करना और फिर…पूरे बाजार को बड़े कारपोरेट के हवाले करना।
अनेक तरह से बदनाम करने की कोशिशों और फिर निरंतर सरकारी उपेक्षा के बावजूद अगर किसान आंदोलन देश के अन्य भागों में फैल रहा है, गांवों तक इसका प्रसार हो रहा है तो यह 1991 के बाद पहली बार है जब हर शै को कार्पोरेटाइज़ करने की मुहिम के विरुद्ध कोई संगठित और सशक्त आवाज उठी है।
बहुत कुछ दांव पर लग गया है इस आंदोलन के कारण…कारपोरेट संपोषित सत्ता का भी, खुद कारपोरेट शक्तियों का भी, किसानों का भी, छोटे व्यापारियों का भी…और, प्रकारान्तर से हर उस वर्ग का, जिसके अस्तित्व के समक्ष सत्ता-कारपोरेट के अनैतिक गठजोड़ ने संकट उपस्थित कर दिया है।