डॉ रीता सिंह
होलिका दहन को सूक्ष्मता में देखा जाय तो यह स्त्री शक्ति का समाज के लिए उच्चतम उत्सर्ग है। स्त्री हमेशा से जीवनदायिनी ऊर्जा रही है। शिव-शक्ति विमर्श को देखें तो शक्ति के बिना शिव शव हैं। कोई शक्ति अत्याचार को सहन नहीं करती। वह अत्याचार की समाप्ति और सत्य को विजय का जामा पहनाती है।
होलिका के चरित्र पर पुनः विचार करने की जरूरत है। उसके उत्सर्ग को नई दिशा देने की जरूरत है। ध्यान से होलिका-दहन की व्यवस्था को देखना होगा। एक अत्याचारी राजा, किसी की आत्मदाह की व्यवस्था करेगा तो क्यों उसमें अपने चहेते व्यक्ति को बैठने कहेगा?अग्निकुंड में सिर्फ उसे बैठाएगा, जिसे मारना है। उसके हाथ-पैर बांधकर बैठा देगा। कहाँ भाग पायेगा वह? वैसे भी पिता के किसी अत्याचार का प्रह्लाद कभी कोई विरोध नहीं करता था, तो अग्निकुंड में बैठने पर भी विरोध नहीं ही करता।
दूसरी तरफ यदि होलिका को उस बालक को जलाना होता, तो उसे गोद में लेकर नहीं बैठती। खुद चादर जरूर ओढ़ती पर प्रह्लाद को अलग से सामने बैठाती, गोद में तो वह सुरक्षित ही हो जाता। सच को देखा जाय तो इतिहास लेखक ने यहां भी स्त्री विरोधी दृष्टिकोण रखकर होलिका को भी अत्याचारी के साथ खड़ा कर दिया, जबकि सच जो मुझे लगता है वह यह है कि होलिका अपने भतीजे से बहुत प्रेम करती थी। वह नहीं चाहती थी कि उसके भाई के कुत्सित चाल, अहंकार में एक सत्यवादी, ईश्वर भक्त बालक को मौत के मुंह में जाने को छोड़ दिया जाए।
इसलिए वह अपने भाई को झांसे में लेकर प्रह्लाद के साथ अग्नि में बैठती है और प्रह्लाद को बचाने में स्वयं को उत्सर्ग कर देती है। यह होलिका का समाज के लिए बलिदान है। वह शहीद हो जाती है, उस बच्चे को बचाने के लिए, जो समाज को ईश्वरीय ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित करने आया है। होलिका का दहन महिला सशक्तिकरण है। सबसे बड़ा उत्सर्ग है। यह महिला-दिवस का उत्सव है।
(लेखिका बी.एड, ए एन कॉलेज, पटना की विभागाध्यक्ष है.)