" किसी ने शक्ल दिया अब नाम बनो तुम,
उलझता सवाल नहीं हर सवाल का जवाब बनो तुम| "
हमारे जीवन के साथ यदि दुःख, परेशानी और संघर्ष है तो दूसरी तरफ़ सफलता, नाम, धन, रुतबा और परिवार भी है। लेकिन आज की युवा पीढ़ी जिनकी जीवन की, सफलता और मुश्किलों की अभी शुरुआत ही हुई होती है कि वे छोटी – छोटी बातों पर आत्महत्या जैसा बड़ा कदम उठा लेते हैं।
जैसा कि आप सब जानते हैं कि 14 जून, 2020 को बिहार के एक होनहार सपूत और सफल अभिनेता ने मुंबई के अपने आवास पर मौत को गले लगा लिया। वजह अभी तक स्पष्ट नहीं है और न ही कोई सुसाइड नोट!
चूकी यह घटना एक जाने- माने अभिनेता के साथ हुई इसलिए पूरे देश में खलबली मच गई। परन्तु ऐसी घटनाएं आए दिन होती रहती है। अब थोड़ी सी चर्चा मैं यहां आत्महत्या से जुड़ी NCRB (राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो) रिपोर्ट की करना चाहूंगी। इस रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2018 में कुल 1,34,516 लोगों ने आत्महत्या की। उसमें 12,936 बेरोजगार थे और जिसमें 10,159 विद्यार्थी शामिल थे। 2016 में जहां आत्महत्या करने वाले विद्यार्थियों की संख्या 9,478 थी वहीं 2017 में यह बढ़ कर 9,905 हो गई और 2018 में इनकी संख्या 10,159 हो गई। NCRB की रिपोर्ट यह भी कहता है कि हमारे देश में प्रतिदिन 28 विद्यार्थी आत्महत्या करते हैं। 2018 में महाराष्ट्र में इनकी संख्या सबसे अधिक थी। 2012 के लांसेट रिपोर्ट में यह भी खुलासा किया गया है कि भारत में 15-29 वर्ष की आयु के लोग ज़्यादा आत्महत्या करते हैं।
NCRB की इस रिपोर्ट को जानने और समझने के बाद एक बहुत बड़ा सवाल उठता है कि लोग आखिर मौत को गले लगाते ही क्यों हैं?
ऐसा क्या चल रहा होता है उनके दिल और दिमाग में?
अपनी जान देने से पहले वे तनिक नहीं सोचते कि उनके जाने के बाद उनके परिवार पर क्या गुजरेगी।
' आत्महत्या ' अर्थात् अपने जीवन को समाप्त करने का विचार! मनोवैज्ञानिकों कि मानें तो इसका एक बहुत बड़ा कारण डिप्रेशन या अवसाद है, जिस दौरान व्यक्ति पर भावनाएं काफी हावी रहती हैं और इसका सीधा प्रभाव उसकी मनःस्थिति, स्मरणशक्ति और स्वभाव पर पड़ता है।
अब एक बड़ा सवाल उठता है कि इस डिप्रेशन के कारण क्या हैं ?
जब हम छोटे थे तो मनोरंजन की परिभाषा ही कुछ और होती थी। शाम होते ही कबड्डी – खोखो और लुका – छुपी का खेल खेलना, दोस्तों से मिलना, बड़े बुजुर्गो की बातें सुनना, पेड़ – पौधों और बागीचों में समय व्यतीत करना, हमारी दिनचर्या में शामिल था. परन्तु अब तो मनोरंजन का अर्थ है सोशल मीडिया का सहारा। रिसर्च बताता है कि स्मार्ट फोन इस्तेमाल करने वालों की संख्या में तीव्र गति से बढ़ोतरी हो रही है। विश्व के कई विशेषज्ञों ने तो सभी माता पिता से यह अपील की है कि वो अपने बच्चों के हाव – भाव और व्यवहार पर निगरानी रखें और उनके जीवन में क्या चल रहा है यह भी जानने की कोशिश करें।
अब यहां एक बात की चर्चा आवश्यक है कि स्मार्ट फोन का इस्तेमाल करना गलत नहीं है बल्कि इसका इस्तेमाल कितनी देर तक किया जा रहा है, यह देखना आवश्यक है। सोशल मीडिया का अत्यधिक प्रयोग साइबर बुलींग, डिप्रेशन और अनिद्रा जैसी समस्याओं को जन्म दे रहा है। सोशल मीडिया पर अधिक से अधिक दोस्त बनाना, ज़्यादा से ज़्यादा लाइक की उम्मीद करना, लाइक नहीं मिलने पर निराश होना… कहने का तात्पर्य है कि आज की युवा पीढ़ी वास्तविक दुनिया को नज़रअंदाज़ कर एक आभासी दुनिया में जीने लगीं है। ब्रांडेड कपड़े पहनना, महंगे फोन रखना, यह सब भी अब उनकी जरूरत बन गई है और जब ये चीजें पास नहीं होती हैं तो लोग हीन भावना से ग्रस्त हो जाते हैं। आमने सामने बात – चीत नहीं होने के कारण लोगों में व्यावहारिकता का अभाव हो गया है और लोग अकेलेपन का शिकार हो रहे हैं जो अवसाद का बहुत बड़ा कारण है। अब तो पूरी दुनिया ही ऑनलाइन हो गई है| कम उम्र में ही लड़के- लड़कियां रिलेशनशिप में रहने लगते हैं जो स्थाई नहीं होता और जब ब्रेकअप होता है तो उसका परिणाम डिप्रेशन और आत्महत्या जैसा निर्णय के तौर पर सामने आता है। उन्हें ऐसा लगता है कि अब उनकी ज़िंदगी में सब कुछ समाप्त हो गया, जबकि देखा जाए तो असफलताएं और कठिनाइयां हमारे संकल्प को और भी मजबूत बनाते हैं।
उम्र के जिस पड़ाव पर युवा- युवतियां जोश से लवरेज होते हैं, कुछ करने और पाने के उस उम्र में यदि वे सुसाइड करने लगेंगे तो यह सिर्फ उनका ही नहीं पूरे देश का नुकसान है।
अतः आवश्यकता इस बात की है कि युवा पीढ़ी वास्तविक दुनिया अर्थात अपने परिवार और समाज से जुड़े, जितनी जरूरत हो उतना ही सोशल मीडिया का इस्तेमाल करें और बाहरी दिखावे से बचें।
तो आइए हम सब मिलकर यह संकल्प ले कि परिस्थिति चाहे जो भी हो हम अपना भरोसा, उम्मीद, आत्मविश्वास और उच्चाकांक्षा बनाए रखेंगे क्योंकि कहते है न, " रात चाहे कितनी भी अंधेरी क्यों ना हो वो सुबह के उजाले को आने से नहीं रोक सकती।"