By Hemant Kumar Jha
जीत तय होने के बाद ममता बनर्जी की प्रतिक्रिया थी, “बंगाल ने देश को बचा लिया है…।”
बावजूद इसके कि अपने 10 वर्षों के शासन में उन्होंने कोई बहुत शानदार उदाहरण प्रस्तुत नहीं किये, उनकी लगातार तीसरी जीत हुई। यह उनकी जीत से अधिक भाजपा के प्रति नकार है।
महत्व इसका नहीं है कि भाजपा 3 से 76 तक पहुंच गई। महत्व इसका है कि ‘बंगाल विजय’ के अभियान में वह औंधे मुंह गिरी, क्योंकि किसी एक राज्य पर कब्जे के लिये इतने जतन का अतीत में कोई उदाहरण नहीं मिलता।
भाजपा अगर बंगाल में जीत जाती तो यह उसकी राजनीतिक सफलता का एक शानदार अध्याय होता और इस बात का संकेत भी कि मोदी-शाह की जोड़ी को अभी और भी नए मुकाम तय करने हैं।
लेकिन…हार का पहला और त्वरित निष्कर्ष यह है कि ढलान आ पहुंची है। मोदी-शाह की जोड़ी के अश्वमेध का घोड़ा अब ठिठकने वाला है। वे अपना शिखर देख चुके हैं। ममता के खिलाफ असन्तोष मामूली नहीं था। अगर कोई सामान्य चुनाव होता तो उनकी पार्टी इतनी बड़ी जीत तो हासिल नहीं ही करती। लेकिन, यह ऐसा चुनाव था जिससे कई सैद्धांतिक सवाल जुड़ गए थे।मसलन, क्या बंगाल भी भाजपा छाप ध्रुवीकरण की राजनीतिक राह पकड़ लेगा? क्या बांग्ला उपराष्ट्रवाद पर मोदी ब्रांड राष्ट्रवाद हावी हो जाएगा? क्या बंगाल का ‘भद्रलोक’ भी बिहार-यूपी के ‘सम्भ्रांत’ लोगों की तरह विचारहीनता का उत्सव मनाएगा?
पहला जवाब तो यही है कि भाजपा अतीत की कांग्रेस नहीं बन सकती जिसका प्रभाव कभी यूपी से तमिलनाडु और गुजरात से बंगाल तक था। कांग्रेस की ऐसी व्यापकता स्वाधीनता आंदोलन में उसकी देशव्यापी भूमिका की देन थी, बाद में नेहरू और इंदिरा की देशव्यापी स्वीकार्यता की देन थी।
दूसरा जवाब यह है कि मोदी ब्रांड राष्ट्रवाद देशव्यापी नहीं हो सकता, न ही इस देश पर कोई दीर्घकालीन प्रभाव छोड़ सकता है। राष्ट्रवाद और संस्कृतिवाद की भाजपा ब्रांड परिभाषाएं इस देश के मिजाज से मेल नहीं खातीं। कभी न कभी इनकी सीमाएं सामने आनी थीं। आने लगी हैं।
सघन प्रयासों के बावजूद केरल और तमिलनाडु के विधानसभा चुनावों में भाजपा कोई उल्लेखनीय भूमिका हासिल नहीं कर सकी। यह उसकी स्वीकार्यता के सीमित होने के स्पष्ट संकेत हैं।
कोई पार्टी यह उम्मीद नहीं कर सकती कि हिन्दी क्षेत्र के राज्य लगातार उसे इतना समर्थन देते रहेंगे। बिहार-यूपी जैसे राज्यों में 90 प्रतिशत लोकसभा सीटें जीत लेना किसी राजनीतिक उबाल का ही परिणाम हो सकता है। ऐसा राजनीतिक उबाल, जो सामूहिक भावनात्मक उबाल में तब्दील हो जाए।
ऐसे उबाल एक दो बार से अधिक नहीं आते। वो मुहावरा है न…काठ की हांडी वाली। कांग्रेस जब उत्तर में डूबने लगी तो आंध्र-कर्नाटक आदि ने उसे सहारा दिया था। उसकी व्यापकता और देशव्यापी स्वीकार्यता ने उसके सिमटने की गति को बेहद मद्धिम बनाए रखा।
भाजपा तेजी से सिमटेगी:
यह थोथा और प्रायोजित मिथक…कि विकल्प कहां है, किसी बियाबान में औंधा पड़ा मिलेगा क्योंकि बात अब विकल्प की तलाश से अधिक सत्तासीन व्यक्ति को खारिज करने की है। लोकतंत्र कभी विकल्पहीन नहीं होता। इस तरह के विमर्श सदैव प्रायोजित ही होते हैं। कभी कांग्रेसी भी ऐसा कहते इतराते थे।
बंगाल में मुख्य और एकमात्र विपक्ष बन जाना भाजपा की सफलता है, लेकिन जब दांव ऊंचे हों तो ऐसी बौनी सफलताएं उत्साह नहीं जगातीं। ममता बनर्जी इतनी बड़ी जीत से खुद भी अचरज में होंगी। अगर वाम दलों और कांग्रेस के बचे-खुचे प्रतिबद्ध वोटरों ने भी उन्हें वोट किया है तो यह बंगाल के मानस में भाजपा ब्रांड राजनीति के प्रति नकार का उदाहरण है।
हालांकि, बंगाल की धरती पर यह द्वंद्व अभी चलेगा। मुख्य विपक्ष भाजपा है तो उसके अपने आग्रह होंगे, अपनी शैली होगी। लेकिन, जैसे ही हिन्दी क्षेत्र में इसका सिमटना शुरू होगा, बंगाली भाजपाई खुद ब खुद बेचैन होंगे, क्योंकि उनमें अधिकतर इस राजनीतिक संस्कृति में दीर्घकालीन तौर पर फिट नहीं होंगे।
जिस यूपी ने मोदी-शाह की जोड़ी की राजनीतिक विजय- गाथा की भूमिका लिखी है, वही उनके पराभव का उपसंहार भी लिखेगा। बंगाल तो ढलान का संकेत मात्र है।
डिसक्लेमर:ये लेखक के निजी विचार है।