By Dr D P Bhushan
कोरोना के साथ-साथ अब ब्लैक फंगस के मामले भी तेजी से बढ़ते जा रहे हैं. लोगों के मन में इस लेकर एक डर पैदा होने लगा है. हालांकि डरने की जगह इसके बारे में ज्यादा जागरुक होने की जरूरत है।
ब्लैंक फंगस कोई नई बीमारी नहीं है. भारत में कई लोग यौगिक जलनेति (पानी से नाक की सफाई) करते हैं. इस अभ्यास में ज्यादातर लोग पानी की सफाई पर ध्यान नहीं देते हैं. काफी साल पहले गंदे पानी से जलनेति करने की वजह से ब्लैंक फंगस के मामले सामने आते थे।
ब्लैक फंगस क्या है:
ये एक दुर्लभ संक्रमण है जिसे म्यूकोरमाइकोसिस भी कहा जाता है. ये Covid-19 के मरीजों या फिर ठीक हो चुके मरीजों में खतरनाक साबित हो रहा है. अगर समय पर ध्यान ना दिया गया तो 50-80 फीसद मरीजों की इससे मौत भी हो सकती है. ये एक फंगल इंफेक्शन है जो खासतौर से उन लोगों को संक्रमित करता है जो किसी ना किसी बीमारी कि वजह दवाओं पर हैं. इसकी वजह से उनमें रोगाणुओं से लड़ने की क्षमता कम हो जाती है. ऐसे लोगों में हवा के जरिए साइनस या फेफड़ों में संक्रमण फैल जाता है। म्यूकर का रंग तो सफ़ेद या भूरा होता है पर जिस हिस्से में यह बीमारी होती है वहाँ के ऊतक मर कर काले हो जाते है इसीलिए इसे ब्लैक फ़ंगस कहा जाता है। यह बीमारी अक्सर कोरोना नेगेटिव होने के २-३ सप्ताह बाद लोगों को दिखती है।
ब्लैक फंगस के लक्षण:
इसका लक्षण इस पर निर्भर करता है कि ये शरीर के किस हिस्से में फैल रहा है. हालांकि आमतौर पर ये साइनस, फेफड़ों और दिमाग में फैलता है. अगर कोई व्यक्ति कोरोना से संक्रमित है और उसे. इसके अलावा बुखार सिर दर्द, खांसी, खून की उल्टी और मानसिक बीमारी भी इसके लक्षण हैं।
ये बीमारी बहुत तेजी से फैलती है:
आमतौर पर इसका पता ENT विशेषज्ञ या फिर MRI के जरिए लगाता जा सकता है. ये उन लोगों को भी हो सकता है जो पानी को बिना उबाले या छाने जलनेति करते हैं। ब्लैक फंगस की ये बीमारी हमारे बीच हजारों सालों से मौजूद है लेकिन पिछले 10 सालों में इसके गिनेचुने मामले ही सामने आए हैं।
अमेरिका, यूरोप और अन्य देशों में भी कोरोना के कुछ मरीजों में ब्लैक फंगस के मामले देखे गए हैं लेकिन भारत में इसके मामलों में अचानक तेजी देखी गई है. खासतौर से कोरोना की दूसरी लहर में ब्लैक फंगस की बीमारी लोगों में ज्यादा फैल रही है।
ब्लैक फ़ंगस के प्रकार-
1. राईनो सेरेब्रल : यह मरीज़ों में सबसे अधिक पाया जाता है। इसमें नाक, आँख में सूजन दर्द बुख़ार नाक से खून आता है। इसके आम लक्षण नाक का बंद हो जाना, नाक की ऊपरी परत पर पपड़ी जम जाना, नाक की स्किन काली पड़ जाना है. इसके अलावा आंखों में दर्द और धुंधला दिखाई देना भी इसके लक्षण हैं।
2. पल्मोनरी: इसमें साँस लेने में कठिनाई होती है।
3. गैस्ट्रो इन्टेस्टिनल: इसमें आँत में बीमारी पकड़ लेती है, तथा दस्त या उल्टी की समस्या हो सकती है।
4. क्यूटेनियस: जले,कटे,फटे चमड़े के साथ फ़ंगस संपर्क से होता है।
5. डिस्सेमिनेटेड: इसमें बहुत अंगों में बीमारी फैल जाती है।
इनमें पहले 3 प्रकार ख़तरनाक हैं तथा 50% मरीज़ों में जानलेवा भी हो जाती है।
ब्लैक फंगस का कारण:
इस बीमारी का मुख्य कारण स्टेरॉयड का अंधाधुंध इस्तेमाल और मरीजों को लंबे समय तक गंदी ऑक्सीजन देना है। जिन लोगों की डायबिटीज बढ़ी हुई होती है, स्टेरॉयड से जिनमें इम्यूनोसप्रेशन हो जाता है, जो लोग ICU में लंबे समय तक रहते हैं, ट्रांसप्लांट के बाद जिन्हें दिक्कत होती है या कैंसर के मरीजों मे – बैक्टीरिया के इन्फेक्शन (superadded infection)हो जाते हैं। बैक्टीरिया के इन्फेक्शन में एन्टीबायोटिक्स दिए जाते हैं। जैसे ही इन्फेक्शन ख़त्म होता है एन्टीबायोटिक बन्द कर देना पड़ता है जो नहीं करने पर फ़ंगस इन्फेक्शन होने की संभावना बढ़ जाती है.
क्या है खतरा:
ब्लैक फंगस हमारे घर में तथा आस पास ही पाया जाता है. ये गीली मिट्टी में म्यूकर के संपर्क में आने से होता है. ये आमतौर पर मिट्टी, जानवरों के गोबर, सड़ी लकड़ी, पौधों की सामग्री, खाद और सड़े फलों और सब्जियों में पाया जाता है। भारत में कोरोना की दूसरी लहर में कई जगह मरीजों को गंदे तरीके से ऑक्सीजन देने का काम किया जा रहा है जिसकी वजह से भी ब्लैक फंगस के मामले बढ़े हैं. इसके अलावा कोरोना के इलाज में स्टेरॉयड तथा एंटीबायोटिक का ज्यादा इस्तेमाल भी इसे बढ़ाने का काम कर रहा है।
आक्सीजन का ग़लत तरीक़े से प्रयोग- मेडिकल ऑक्सीजन (MO) और इंडस्ट्रियल ऑक्सीजन में बहुत बड़ा अंतर है. मेडिकल ऑक्सीजन पूरी तरह शुद्ध होता है और इसे बनाने में कम्प्रेशन, फिल्ट्रेशन और प्यूरीफिकेशन के चरणों गुजरना होता है. जिन सिलेंडरों में लिक्विड ऑक्सीजन भरा और भेजा जाता है, उन्हें बहुत अच्छी तरह साफ करके कीटाणुरहित किया जाता है. मरीजों को देने से पहले इसका ह्यूमिडिफिकेश किया जाता है. इसके लिए कंटेनर में शुद्ध (Sterilised) पानी भरा जाता है और इसे प्रोटोकॉल के तहत बार-बार बदला जाता है। कंटेनर का पानी शुद्ध ना रहने पर ब्लैक फंगस की संभावना बढ़ जाती है।
Covid-19 के डायबिटीज और बिना डायबिटीज वाले मरीजों को बिना ह्यूमिडिफाई किया ऑक्सीजन म्यूकस मेम्ब्रेन को सुखा कर फेफड़ों को खराब कर देता है।
Covid-19 के इलाज में स्टेरॉयड का इस्तेमाल सही समय पर सही मात्रा में तथा सही अवधि तक होना चाहिए. स्टेरॉयड केवल कोरोना के प्रभाव से लड़ने में प्रभावी होते हैं, ये सीधे तौर पर वायरस से नहीं लड़ते हैं. कोरोना के शुरुआती ४-५ दिनों में ही मरीज को इसे देने पर यह खतरनाक और हानिकारक हो सकता है. ये वायरस को और बढ़ा देता है. ये प्रतिरोधक क्षमता को भी कम करता है. डायबिटीज के मरीज को बेवजह या ग़लत मात्रा में या अधिक अवधि तक स्टेरॉयड देने पर उसका शुगर स्तर बढ़ जाता है. इससे उसमें कोरोना के गंभीर होने के साथ-साथ बैक्टीरियल और अन्ततः फंगल या ब्लैक फंगस होने की भी संभावना बढ़ जाती है।
क्या है बचाव
1. ऑक्सीजन की क्वालिटी पर ध्यान देकर इस खतरे को कम किया जा सकता है। इस बात का ध्यान देने की जरूरत है कि ऑक्सीजन डिलीवरी से पहले ह्यूमिडिफिकेशन के लिए बार-बार स्टेरलाइज्ड और डिस्टिल्ड वॉटर का ही इस्तेमाल किया जाए.
2. कंटेनर के सभी डिस्पोजेबल हिस्से को बार-बार बदलना चाहिए।
3. स्टेरॉयड का इस्तेमाल आवश्यकतानुसार ही करना चाहिए। यह दुधारी तलवार है।
4. डिस्चार्ज होने के ३ महीना बाद तक कोरोना के मरीजों को अपना शुगर लेवल चेक करते रहना चाहिए।किसी भी बैक्टीरिया, फ़ंगस या ब्लैक फ़ंगस के लक्षणों के लिए सावधानी रखनी चाहिए।
5. अपने आसपास फंगस की पहचान करने ज़रूरत है। किचन में रखे फल या ब्रेड जब सड़ जाते हैं तो इनमें फफूंदी लग जाती है. समय रहते इन्हें हटा देना चाहिए।
क्या है इलाज-
1. शुरुआती समय में यह बीमारी सिर्फ़ दवा से ठीक हो सकती है। इसके नियंत्रण हेतु ऐम्फोटेरिसिन बी की सुई नसों में लगभग २-३ हफ़्ते तक दी जाती है। अन्य दवाएँ जैसे पोसाकोनाज़ोल (Posaconazole) या आईसाभूकोनाजोल(Isavuconazole) की गोली या उसका इंजेक्शन भी दिया जाता है।
2. बीमारी बढ़ने की स्थिति में मरे हुए शरीर के अवयवों को आपरेशन (Debridement) कर हटाना पड़ता है ताकि मरीज़ की जान बचाई जा सके।
Dr. D P Bhushan,Prof HOD ओर्थो,अध्यक्ष MTA द्वारा संकलित