यह सामान्य ज्ञान की बात है कि तीव्र कोरोना संकट के दौरान राज्य मशीनरी की विफलता ने आजादी के बाद आधुनिक भारत के इतिहास में पहले की तरह अभूतपूर्व रिकॉर्ड दर्ज किए हैं ।
श्मशानों पर भीड़, ऑक्सीजन की कमी से तड़पते लोग, ट्विटर पर जांच और दवा के लिए गिड़गिड़ाते संदेश,,अस्पतालों के बाहर हजारों मरीजों को प्रवेश का इंतजार , सैकड़ों शवों को भी एक सुंदर अंतिम संस्कार से वंचित किया जा रहा है, जो हर व्यक्ति के जाने के बाद उसके मुक्ति के लिए योग्य हैं। भारत में स्वास्थ्य व्यवस्था इतनी गई गुजरी है कि इसे राजनीतिक श्रेय लेने की होड़ के काबिल भी नहीं समझा जाता…
इसकी अहमियत सरकारी मेलों और तीर्थ यात्राओं जितनी भी नहीं है। इस संकट के बावजूद, राजनीतिक हस्तियों ने राजनीतिक लाभ प्राप्त करने और विरोधियों को नीचा दिखाने के लिए बयानों को हवा देने में व्यस्त हैं। बीते साल कोविड की शुरुआत के बाद केंद्र ने महामारी एक्ट 1897/अध्यादेश 2020) और आपदा प्रबंधन कानून 2005 का इस्तेमाल किया था। इन दोनों केंद्रीय कानूनों के साथ संविधान की धारा 256 भी अमल में आ गई और इन्हीं कानूनों के तहत बीते बरस लॉकडाउन लगाया, बढ़ाया, हटाया गया और असंख्य नियम तय हुए जिन्हें एक साथ लागू किया, यह स्थिति आज तक कायम है।
अब सीधा सवाल यह है कि जिम्मेदारी का पता कैसे लगाया जाए और सरकार,प्रशासन की लापरवाही, दोषीत को कैसे दण्डित किया जाए। जो यह मानवता के लिए इस तीव्र पीड़ा का कारण बनने के अधिकारी हैं। भारत में स्वास्थ्य राज्य सूची का विषय है लेकिन सेहत से जुड़ा प्रत्येक बड़ा फैसला केंद्र लेता है, स्वास्थ्य सेवाएं देना राज्यों की जिम्मेदारी लेकिन वह कैसे दी जाएंगी यह केंद्र तय करता है।
बीमारी नियंत्रण की स्कीमों, दवा के लाइसेंस, कीमतें, तकनीक के पैमाने, आयात, निजी अस्पतालों का प्रमाणन, अनेक वैज्ञानिक मंजूरियां, ऑक्सीजन आदि के लिए लाइसेंस, वैक्सीन की स्वीकृतियां सभी केंद्र के पास हैं, तभी तो कोविड के दौरान जांच, इलाज से लेकर वैक्सीन तक प्रत्येक मंजूरी केंद्र से आई हैं।
स्वास्थ्य पर कुल सरकारी खर्च का 70 फीसदी बोझ, राज्य उठाते हैं जो उनकी कमाई से बहुत कम है। इसलिए केंद्र से उन्हें अनुदान 15वां वित्त आयेाग-70,000 करोड़ रुपए पांच साल के लिए और बीमारियों पर नियंत्रण के लिए बनी स्कीमों के माध्यम से पैसा मिलता है। इस सबके बावजूद भारत में स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च जीडीपी का केवल 1.26% प्रति व्यक्ति है जो प्रति व्यक्ति में श्रीलंका से भी कम है।
शासक वर्ग से मानवता के किसी भी कार्य की उम्मीद करना अब किसी भी मानवीय कल्पना से परे है क्योंकि इस महामारी ने सत्ता के लोगों के चरित्रों को उजागर किया है। सरकारें बहुत कुछ कर नहीं सकती थीं, सिवाय इसके कि भारी टैक्स निचोड़ कर फूल रहा हमारा निजाम आंकड़ों और सूचनाओं की मदद से कम से कम निजी क्षेत्र के जरिए ऑक्सीजन, दवा, बेड की सही जगह, समय और सही कीमत पर आपूर्ति की अग्रिम योजना बना लेता तो इतनी भयावहता ऩ होती। इनसे इतना भी नहीं हुआ।
लोग क्षमताओं की कमी से नहीं सरकारों के दंभ और लापरवाही से मर रहे हैं। पहले चरण में डेढ़ लाख मौतों के बाद भी कुछ नहीं बदला,अब हम भारतीय राजनीति के सबसे वीभत्स चेहरे से मुखातिब हैं जहां महामारी और गरीबी के महाप्रवास के बीच असफल सरकारों ने हमें राज्यों के नागरिकों में बदलकर एडिय़ां रगड़ते हुए मरने को छोड़ दिया है। तीव्र संकट के इस समय में, उच्च न्यायपालिका को इस तथ्य के प्रकाश में असहाय जनता के लिए उदाहरणकर्ता और प्रहरी की भूमिका निभानी चाहिए क्योंकि अन्य लोकतांत्रिक संस्थाएं बुरी तरह से विफल रही हैं।
न्यायपालिका वर्तमान में जनता के लिए आशा का अंतिम उपाय है। क्योंकि संविधान सर्वोच्च न्यायालय को सर्वश्व शक्ति के तहत कानून बनाने का अधिकार देता है। जिसे अनुच्छेद 142 में विस्तारित क़िया गया है। हम, कानूनी बिरादरी, माननीय सर्वोच्च न्यायालय से आग्रह करते हैं कि देश को इस आपदा से बचाने के लिंए अभिनव आपातकालीन कानून तैयार किया जाए, ताकि इस संकट के लिए दोषी को दंडित किया जा सके। इस बार, उच्च न्यायपालिका को अन्य संस्थानों की तरह विफल नहीं होना चाहिए और देश को आवश्यक तरीके से इस संकटकालीन परिस्थिति में डालने वाले के लिए आगे आना चाहिए …. अन्यथा परिणाम की कल्पना करना भी मुश्किल हो जाएगा … !!!
डिस्क्लेमर: ये लेखक नीतिश कुमार सिंह,अधिवक्ता सह प्रमंडलीय मंत्री,बिहार युवा अधिवक्ता कल्याण समिति,बिहार के निजी विचार हैं।