Written by: Hemant Kumar Jha
हर वह आदमी असुरक्षा बोध से ग्रस्त है जो कल तक जीवन के सपने संजो रहा था। जीवन की क्षणभंगुरता का अहसास इतनी शिद्दत से हो रहा है कि मन में अक्सर वैराग्य उपजने लगता है। मैसेज आते हैं, फोन आते हैं सम्बन्धियों के, दोस्तों के, “आप ठीक हैं न?” क्या उत्तर दे कोई? फिलहाल तो ठीक हैं, आगे का नहीं पता।
आस्तिक होना इस मायने में सम्बल देता है कि सब कुछ प्रभु पर छोड़ सकते हैं। लेकिन, प्रभु पर सब कुछ छोड़ना इतना आसान भी नहीं। मन संशय से भर उठता है।
मरने से उतना डर नहीं, जितना डर फ़ज़ीहतें झेलते मरने से है, जितना डर मर जाने के बाद अपने मृत शरीर की दुर्दशा की कल्पना से है। दूसरों की गति देख कर मन आशंकाओं से घिर-घिर जाता है।
दोस्तों की नसीहतें मिलती हैं, “सोच को पॉजिटिव रखिये”, सरकार का संदेश मिलता है, “कोरोना से डरना नहीं, लड़ना है”, अखबार की खबरें कहती हैं, “अस्पताल में बेड नहीं, श्मशान में जगह नहीं”…।
डॉक्टर थक रहे हैं, कंपाउंडर निढाल हैं, एम्बुलेंस की राह तकते रोगी की सांसें उखड़ रही है, परिजनों की चीत्कार माहौल को मर्माहत कर रही है।
पता नहीं, कैसा वायरस है, कैसी रहस्यमयी क्रूरता है इसकी। 80 वर्ष के दादाजी, 88 वर्ष की नानी जी के कोरोना से जंग जीतने की बातें सुनाई देती हैं, हल्का बुखार, हल्की खांसी से गुजरते हुए पॉजिटव से निगेटिव तक की यात्रा करते लोगों के उदाहरण मिलते हैं…कितनों को तो पता भी नहीं चलता कि कब वे पॉजिटव हुए और फिर खुदबखुद निगेटिव भी हो गए।
जबकि…जिन्हें जाना है वे स्वस्थ और जवान रहने के बावजूद संक्रमित होते ही मौत की राह पकड़ रहे हैं।
न्यायालय इसे सांस्थानिक नरसंहार कह रहा है, विश्लेषक सिस्टम को कोस रहे हैं, नेताओं को कोस रहे हैं, अस्पताल की अव्यवस्थाओं को कोस रहे हैं, एम्बुलेंस की अनुपलब्धताओं पर सिर धुन रहे हैं।
एम्बुलेंस आ भी जाए तो कहां ले जाएगा?
अभी एक परिचर्चा में एक बड़े पत्रकार को कहते सुना, पटना एम्स के डॉक्टर को अपने ही अस्पताल में बेड नसीब नहीं हुआ और वे तड़पते गुजर गए।
140 करोड़ की आबादी पर एक लाख से भी कम आईसीयू, उससे भी कम वेंटिलेटर…ऑक्सीजन का मामला ऐसा कि आज के अखबार में पढ़ा, एक सिलिंडर एक लाख दस हजार रुपये में ब्लैक मार्केट से किसी ने हासिल किया, कीमत से सैकड़ों गुने अधिक में इंजेक्शन।
नैतिक-अनैतिक होने, कानूनी-गैरकानूनी होने के द्वंद्व से पूर्णतः मुक्त…अकूत मुनाफा और निर्मम लूट की लिप्सा में लिपटे-लिथड़े निजी अस्पताल…जिनके गेट पर ही मानवता कहीं धूल में लोटती नजर आती है।
अभी पप्पू यादव को चीखते सुन रहा था, “मधुबनी गोलीकांड में घायल आदमी को फलां निजी अस्पताल ने 41 लाख रुपये ऐंठ लिये”…।
41 लाख…बंदूक की गोली से घायल किसी आदमी के इलाज का खर्च…वह भी अधूरा। औकात जवाब दे गई तो निजी अस्पताल की गिरहकटी से पलायन कर पीएमसीएच की सरकारी छाया में त्राण और जीवन की लालसा में पप्पू यादव के कंधे पर चढ़ कर पहुंचा आदमी।
एक फेसबुक मित्र ने पन्नी में लिपटे अपने भाई की लाश की फोटो के साथ लिखा, “18 लाख रुपया और दुत्कार के बाद यही हासिल है।”
खबरें चर्चा में हैं…कि गम्भीर हालत में पहुंच चुके मरीजों से प्राइवेट अस्पताल लाखों रुपये प्रतिदिन वसूल रहे हैं। लोग घर, जमीन, गहने बेच कर, जैसे भी हो, रुपये की व्यवस्था कर मुनाफा की उस पाशविक लिप्सा को तुष्ट कर रहे हैं…ताकि उनके किसी अपने की सांसों की डोर न टूटे।
हर ओर अराजकता है, हर ओर अनिश्चय है, मुनाफे की शक्तियां बेलगाम हैं, सार्वजनिक कल्याण के लिये स्थापित सरकारी अस्पताल बेदम हैं, मानवता आदर्श की किताबों में सिमट चुकी लगती है…अफसर निरुपाय हैं, नेता की बोलती बंद है।
महज 40-50 किलोमीटर की दूरी तय करने के लिये एम्बुलेंस 10 हजार-20 हजार मांग रहे हैं। सरकारी राशि से खरीदी एम्बुलेंस भी…। आखिर वे ‘पीपीपी मॉडल’ पर जो चल रही हैं।
पीपीपी…यानी पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप…यानी अब के नीति नियामकों की प्रिय प्रणाली।
पैसा पब्लिक का…मुनाफा प्राइवेट का…संरक्षण सरकार का।
काश…कि कोई सुबह ऐसी आती कि नींद खुलने के साथ खबरों पर नजर पड़ती..”कोरोना संकट को देखते हुए तमाम निजी अस्पतालों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया है, कि उनके शुल्कों की सीमा तय कर दी गई है और उल्लंघन करने वालों को सख्त सजा का ऐलान कर दिया गया है…कि हर निजी अस्पताल मैजिस्ट्रेट की सघन निगरानी में है, कि हर जान कीमती है और उसे बचाने को व्यवस्था कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखेगी।”
लेकिन…इस ‘काश’ के भीतर आहों के आर्त्तनाद के सिवा कुछ और नहीं।
“राष्ट्र…राष्ट्र” करने वाले राष्ट्रीयकरण शब्द से ही चिढ़ जाते हैं। वे तो राष्ट्र की संपत्तियों को निजी हाथों में बेचने को उतारू हैं, वे तो सरकारी जिला अस्पतालों में भी निजी निवेश की कार्य योजना पर काम कर रहे हैं।
जब चहुंओर संक्रमण पसरता जा रहा हो तो कौन बचेगा, कौन घेरे में आ जाएगा, क्या कहे कोई।
डर संक्रमण से उतना नहीं, डर मरने से भी उतना नहीं…डर है उस निर्मम तंत्र से, जहां मनुष्य होना कोई मायने नहीं रखता,जहां मनुष्यता कोई मायने नहीं रखती, जहां गिद्धों का बोलबाला है।
सुनते हैं, गिद्ध विलुप्त होते जा रहे हैं। मेरे 14 वर्षीय बेटे ने अब तक कभी किसी गिद्ध को नहीं देखा। लेकिन, अगर उसका पिता संक्रमित हो गया और अगर…स्थिति गम्भीर हो गई तो फिर…चहुंओर गिद्ध ही गिद्ध।
शायद मेरे बेटे की पीढ़ी उन गिद्धों से संघर्ष करे, असीमित मुनाफे की उनकी लालसाओं पर वैचारिक क्रांति और बदलावों के आक्रमण हों। हमारी पीढ़ी ने तो उनके पंखों में असीमित ऊर्जा और उनके नुकीले चोंच को तेज धार देने का काम ही किया है।
हमारी पीढ़ी को हमारी विचारहीनता ही निगल रही है। हर पराजित बाप उम्मीद करता है कि उसका बेटा उसका खोया संसार वापस लाएगा। उम्मीद करें कि हमारी पीढ़ी ने जो खोया है, हमारे बेटे की पीढ़ी उसे फिर से हासिल करे… ताकि…बीमार पड़ने पर किसी नागरिक के साथ मनुष्यता की गरिमा के तहत व्यवहार हो, उसका समुचित इलाज हो, उसे लूट लिए जाने का दंश न भोगना पड़े।
बाकी…मरने का क्या है। जब बुलावा आए, “यह संसार कागज की पुड़िया, बून्द पड़े धुल जाना है।”
मरने से डर नहीं लगता…जीते जी मर जाने से डर लगता है, मरने के पहले की फजीहतों से डर लगता है।
डिस्क्लेमर:ये लेखक के निजी विचार है।