"जब तक महामारी हज़ारों को अपना शिकार बनाती है, तब तक डर लाखों लोगों को अपना शिकार बना चुका होता है।" यह बात उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में, जब हैज़ा और प्लेग से लंदन में हज़ारों लोग मारे गये थे, तब बार-बार कही गयी थी। आज यह बात दुबारा समझने की जरूरत है, क्योकि यह युग सूचना क्रांति का युग है एक नयी बीमारी को महामारी कह कर प्रचारित किया जा रहा है………
आज अगर कुछ सौ लोग मरते हैं तो हजारों नहीं लाखो भी नहीं बल्कि करोड़ों लोगो को मीडिया उनकी मौत की खबर सुना कर भयभीत कर देता है, पैनिक मचा देता है, आज यही पैनिक हमे गरीब और गरीब बना रहा है !
क्या आठ महीने बाद भी यह बात हम समझ नही पाए हैं ?
कोरोना के दौर की सबसे बुरी बात यह है कि इस दौर में बुध्दिजीवी लोग भी अपने सोचने समझने और विचार करने की शक्ति खो चुके हैं वे सवाल नही कर रहे! सिर्फ आदेश मान रहे हैं और वो भी ऐसी सरकारों का जो ऐसे मामलों में कही और से ही ऑपरेट हो रही है।
एक उदाहरण देता हूँ हफ्ते भर पहले दिल्ली में 7000 के आसपास कोरोना केस निकल रहे थे अब वे केस आधे रह गए हैं लगभग 4000 के आसपास ही है तो हमे ये बता कर डराया जा रहा है कि दिल्ली में प्रतिदिन मरने वालों की संख्या बढ़ गयी है पिछले 4 दिनों से दिल्ली में 125 के आसपास डेली मौतें हो रही है….. अब जरा 22 नवम्बर को भारत मे कुल मौतो का आंकड़ा जान लीजिए पूरे देश मे कुल 510 मौतें हुई है यानी लगभग एक चौथाई मौतें सिर्फ दिल्ली में हो रही है। इसका दूसरा पहलू यह है अगर आबादी के हिसाब से देखा जाए तो दिल्ली को छोड़कर देश 98 प्रतिशत आबादी में मात्र 375 मौतें हुई है….. इससे कही ज्यादा मौतें इस दिन टीबी से हुई होगी !
तो क्या इसका मतलब यह है कि पूरे देश में पैनिक का माहौल बना दिया जाए जो मीडिया इस वक्त कर रहा है?
अब मैं आपको याद दिलाता हूँ कि महामारी क्या होती है WHO की परिभाषा सिर्फ यह बताती है कि जिस संक्रामक बीमारी का फैलाव एक निश्चित अवधि में दुनिया के अधिकांश क्षेत्रों में हो जाए वो महामारी है लेकिन आम लोगो के लिए महामारी का मतलब मौतो की संख्या से है।
100 साल पहले पिछली बार जब देश मे स्पेनिश फ्लू महामारी आई थी तब क्या आप जानते हैं कि भारत मे कितने लोग मारे गए थे उनकी संख्या थी लगभग 1 करोड़ 80 लाख, यानी उस समय की जनसंख्या का 6 फ़ीसदी. कहते हैं कि कश्मीर की ऊँचाइयों से लेकर बंगाल के गाँव तक कोई भी इस बीमारी से अछूते नहीं रहे थे.
जॉन बेरी ने अपनी किताब में भारत में इस बीमारी के फैलाव का ब्यौरा देते हुए लिखा है, 'भारत में लोग ट्रेनों में अच्छे-भले सवार हुए. जब तक वो अपने गंतव्य तक पहुंचते वो या तो मर चुके थे या मरने की कगार पर थे.
जॉन बेरी को छोड़िए सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जो उस वक्त जवान थे उन्होंने उस दौर को बहुत करीब से देखा था वे अपनी आत्मकथा कुल्ली भाट में लिखते है- 'मैं दालमऊ में गंगा के तट पर खड़ा था. जहाँ तक नज़र जाती थी गंगा के पानी में इंसानी लाशें ही लाशें दिखाई देती थीं. मेरे ससुराल से ख़बर आई कि मेरी पत्नी मनोहरा देवी भी चल बसी हैं. मेरे भाई का सबसे बड़ा बेटा जो 15 साल का था और मेरी एक साल की बेटी ने भी दम तोड़ दिया था. मेरे परिवार के और भी कई लोग हमेशा के लिए जाते रहे थे. लोगों के दाह संस्कार के लिए लकड़ियाँ कम पड़ गई थीं. पलक झपकते ही मेरी परिवार मेरी आँखो के सामने से ग़ायब हो गया था. मुझे अपने चारों तरफ़ अँधेरा ही अँधेरा दिखाई देता था. अख़बारों से पता चला था कि ये सब एक बड़ी महामारी के शिकार हुए थे.