देवघर।
हर शहर की अपनी एक विशिष्ट पहचान होती है. इसी पहचान के चतुर्दिक उसकी प्रगति और प्रयोजनीयता के आयाम गढ़े जाते हैं.
देवघर की पहचान 'वैद्यनाथ मंदिर' से है.समय की शिला पर विगत से वर्तमान तक इस शहर की यात्रा दरअसल 'वैद्यनाथ मंदिर' का सजदा ही है.भविष्य की राहें भी यहीं से निकलेगीं,यह भी तय है.
विलक्षण वास्तु
आज भी आम जनमानस यह मानता है कि बाबा वैद्यनाथ का देवालय भगवान विश्वकर्मा की अनोखी कृति है.भगवान विश्वकर्मा निर्माण के देवता माने जाते हैं.उनका निर्माण 'वास्तु' पर आधारित होता है.अपने देश में 'वास्तु' एक शास्त्र है जिसके आधार पर घर,भवन,प्रासाद(महल) और देवालयों को आकार दिया जाता है.इसमें चार दिशा,चार विदिशा और आकाश-पाताल को जोड़कर कुल दस दिशाएं बताई गई हैं.मूल दिशाओं के मध्य की ईशान, आग्नेय, नैऋत्य और वायव्य दिशा को विदिशा कहा गया है।
'वैद्यनाथ मंदिर' के निर्माण में इन तत्वों का बेहतरीन समन्वय परिलक्षित होता है.बाबा पर अर्पित होने वाले नीर का निकास उत्तर की ओर है.भक्तों को सालों भर जल मिलता रहे,इसके लिए उत्खनित कूप(चंद्रकूप) की दिशा भी उत्तर है.अब आगे शिवगंगा की स्थिति देखिए.यह 'ईशान'(पूर्वोत्तर) कोण पर है.यहां पहले बत्तीसी,छत्तीसी सहित बिलासी(नीलकंठपुर मौजा) की अनेक 'जोरिया' का जल उतरता था.बरसात में जब 'शिवगंगा' लबालब हो जाती तो संचित जल 'भौंरा' के माध्यम से 'मानसरोवर' में प्रवाहित कर दिया जाता.'मानसरोवर' से अतिरिक्त जल 'जलसार', 'हदहदिया' और 'जमुनाजोर' के बरास्ते 'डढ़वा' में विलीन हो जाता.'जमुनाजोर' तो शरीर रूपी देवघर के लिए धमनियों की तरह थी.पूरे शहर को आर्द्र और संजीवित करने वाली.इसके तीरे-तीरे के तरुवर और उसमें समाहित जैव-विविधता भी उसी 'विश्वकर्मा' का सृजन था जिसे हम आज 'नेचर' या प्रकृति के नाम से जानते हैं.
विश्वकर्मा: एक विरुद
यहां 'विश्वकर्मा' शब्द एक विरुद मात्र है.एक रूपक और समय की अनंत चुनौतियों को झेलने की दृष्टि से गढ़ी गई एक मिथकीय संज्ञा। लेकिन,भौतिक अवस्थिति, स्थापत्य, भक्तों के प्रवेश, निकास, जल-भंडारण,जल-निकास,वायु-संचरण,प्रकाश-परावर्तन,तोरण, पुरोहितों और व्यावसायिक मंडलियों की उपस्थिति, शासकीय नियंत्रण के साथ जिस विशेषता के कारण 'वैद्यनाथ मंदिर' आज भी पूरे देश में अपनी सानी नहीं रखता, वह है इसका अद्भत् आध्यात्मिक बोध! एक खास प्रकार की महकती और असरदार सुखानुभूति।
इस मंदिर की दरों-दीवार उठाने वाले 'विश्वकर्मा' यानी वास्तुकार, संगतराश, राजमिस्त्री,मजदूर और उन्हें साधन उपलब्ध कराने वाले सकल समर्थ जन बड़े दूरदर्शी थे. वे यह जानते थे कि सदियों बाद जब आबादी विरल नहीं रहेगी, चहुंओर शांति पर कोलाहल का राज होगा,व्यवस्था की नाकामी और आत्मकेंद्रित सत्ता प्रतिष्ठानों से भोले-भाले मन-मनुज छले और दुरदुराए जायेंगे,तब उनका नैराश्य इसी चौखट पर आ टिकेगा. हर तरह की सुविधाओं के बावजूद कुछ होगा जो अनकहा,अव्यक्त और अतृप्त होगा.वैसी परिस्थिति में विदग्ध और आहत भक्तों के साथ बड़ी संख्या में खाए-अघाए,परितृप्त भक्तों की टोली भी जब यहां अपनी आस्था की परीक्षा देने उमड़ पड़ेगी तब उनका 'वास्तु' काफी हद तक न सिर्फ उस विह्वल जनभार का दवाब झेल सकेगा,बल्कि गहन समागम के बीच भी एकाग्रता का अतल बुन पाएगा.शांति की एक छुवन का एहसास करा सकेगा जिसकी जरूरत उस दौर में सबसे अधिक होगी.उनकी सोच गलत नहीं थी.आज भी सावन में जब भीड़ से मंदिर का प्रांगण अट पड़ता है तब मंदिर के श्रृंग की ओर निहारने भर से मन हठात् कहीं रम जाता है,एक विशेष ऊर्जा की अनुभूति से भर-भर उठता है.इसलिए, विदेशी वास्तुकारों ने 'वास्तु' को 'ऊर्जा का खेल'( A Game of Energy)भी कहा है.