नई दिल्ली।
बिहार के गया जिले के एक गाँव में एक महिला ने अपने तीन बच्चों के साथ जहर खा लिया. वह और उसकी एक बेटी मर गए लेकिन एक बेटा और एक बेटी मौत से जूझ रहे हैं. कारण: पति लॉकडाउन में दूसरे राज्य में काम न मिलने के कारण घर आया और खेती करने लगा जबकि पत्नी उसे फिर से बाहर जा कर कमाने पर जोर दे रही थी. जाहिर है पत्नी जानती थी कि खेती या गाँव में रह कर वह पांच लोगों का पेट नहीं पाल सकेगा.
उधर बड़े धूमधड़ाके के साथ प्रधानमंत्री ने 50 हज़ार करोड़ रुपये दे कर “गरीब कल्याण रोजगार अभियान” शुरू किया, यह कहते हुए कि इससे शहरों से वापस हुई “प्रतिभाओं” को उनके घर के पास रोजी दे कर ग्रामीण भारत का विकास किया जाएगा. इस योजना में मात्र 202 रुपये रोजाना मजदूरी मिलती है और वह भी साल में मात्र 100 दिन. लोकसभा में सरकार के अनुसार वर्ष 2018-19 में देश भर में औसत 51 दिन हीं मजदूरी मिली.
क्या सरकार को यह समझ है कि हर माह 800 रुपये की आय, पांच लोगों के परिवार की "प्रतिभा" को गरीबी की किस गर्त मे डालेगी?
केरल, पंजाब या दिल्ली में उसी मजदूर को 600 से 800 रुपये मिलते हैं. किसानों की दुर्दशा का सत्य देखें। सन 1970 में गेंहू का समर्थन मूल्य 76 रुपये प्रति कुंतल था और 50 साल बाद 1930 रुपये याने 25.3 गुना. इसी काल-खंड में केन्द्रीय कर्मचारियों की आय 140 गुना, अध्यापकों की 330 से 400 गुना, कॉर्पोरेट सेक्टर के मध्यम मैनेजमेंट की 420 से 1200 गुना बढी. गैर-अनाज उपभोक्ता सामान की कीमतें बेतहाशा बढीं. लिहाज़ा किसानों को अपनी जरूरतों के लिए, बच्चे की शिक्षा और स्वास्थ्य पर आज लगभग 500 गुना ज्यादा खर्च करना पड़ता है. वह महिला इस बात से वाकिफ थी कि खेती पर परिवार को जिन्दा रखना मुश्किल होगा. अगर सरकार को वाकई ग्रामीण भारत के विकास में दिलचस्पी है तो अनाज का समर्थन मूल्य बढ़ाना होगा ताकि खेती लाभ का व्यवसाय बने. लेकिन सरकार इस डर से अनाज के मूल्य नहीं बढ़ने देती कि इससे मध्यम वर्ग नाराज़ होगा और महंगाई बढ़ेगी तो सरकार पर दबाव पडेगा.
उधर केरल, पंजाब, गुजरात और महाराष्ट्र श्रमिक –अकाल के संकट से जूझ रहे हैं.
सरकार के पास दो हीं विकल्प है– या तो खेती को लाभकारी बनाये या मजदूरों के बाहर जाने पर आय, आवास व आजीविका सुरक्षित करे. अगर सरकार उनकी “प्रतिभा” की इतनी कायल है तो उनके जीवन को बेहतर बनाना भी भारत के विकास के लिए अपरिहार्य होगा.