जब किसी महामारी की आक्रामकता अबूझ हो जाती है, तब व्यवस्था सतर्कता से काम लेती है. 'कोरोना' के मारक तंतुओं को निष्प्रभावी करने के लिए सरकार द्वारा 'लाकडाउन' की मियाद बढ़ाने को इसी सतर्कता के परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए. दुर्भाग्यवश इस ऐहतियाती सरकारी फैसले ने देश के कई हिस्सों में लोगों की अधीरता को एक नया उफान दे दिया है. महाराष्ट्र सहित देश के कई दूसरे हिस्सों में फंसे प्रवासी मजदूरों का सैलाब महफूज कूचों से निकलकर सड़कों पर बह चला है. ऐसी तीक्ष्ण अनिश्चतता के समय एक और समस्या पनप उठी है.
दरअसल, साधनों के संग्रह की आपाधापी बढ़ गई है.खासकर, खाने-पीने की चीजों को जमा करने की होड़ उमग उठी है. जब से 'लाकडाउन' को तीन मई तक ताना गया है, लोग अधीर हो उठे हैं. बिना दूसरे की चिंता किए अपने और अपने परिवार की भूख का शर्तिया इंतजाम करने लगे हैं. खासकर, जिनके पास ज्यादा पैसे हैं,वे ज्यादा जुटा रहे हैं.यह सोचे बिना कि खाद्यान्न सहित दूसरी जरूरी चीजों की आवक अभी सीमित तरीके से हो रही है. वे सब खरीद लेंगे तो दूसरे क्या खायेंगे? दुर्भाग्यवश, अपना देवघर भी इस किस्म की बेसबरी की नजीर बनने लगा है. ऐसे में छायावादी युग के चार स्तंभों में से एक महाकवि जयशंकर प्रसाद(१८८९-१९३७ ई.) की पंक्तियां हमारी आत्मकेंद्रित लिप्सा पर चोट करती जान पड़ती हैं –
'अपने में सब-कुछ भर कैसे व्यक्ति विकास करेगा/ यह एकांत स्वार्थ भीषण है अपना नाश करेगा/ औरों को हंसता देखो मनु-हंसों और सुख पाओ/अपने सुख को विस्तृत कर लो/ सबको सुखी बनाओ.'
ऐसी आपदा में दूसरों की जरूरत और तकलीफ से मुंह मोड़कर हम मनुष्यता की तौहीन करेंगे. यह मनुष्य होने की बुनियादी शर्त का उल्लंघन भी होगा. खासकर, उस देवघर के परिप्रेक्ष्य में जिसने हर आपदा में दूसरों के बारे में ज्यादा सोचा है. आज भी अनेक समाजनिष्ठ संक्रमण का खतरा उठाकर जरूरतमंदों तक खाद्य-सामग्री पहुंचा रहे हैं. लेकिन, कुछ मौकापरस्त यहां भी राहत की बारंबारता से खुद को नवाजने से बाज नहीं आ रहे हैं.
मौजूदा महामारी का शिल्प भले ही वैश्विक हो, पर इसका एक बड़ा सिरा आज भी भूख और भरण के सवाल से जुड़ रहा है. लिहाजा,यह जानना-समझना जरूरी है कि कहीं हमारे आस-पास कोई भूखा तो नहीं सो रहा ? आर्थिक क्रियाओं पर बैठे पहरे ने किसी की जमा-पूंजी और होंठों की मुस्कान तो नहीं छीन ली? कहीं स्वाभिमान और संकोच के कारण किसी की सिसकियां मद्धिम तो नहीं पड़ने लगीं? आप कह सकते हैं,यह सब सरकार को सोचना चाहिए. बेशक, भूख का सवाल सरकार की प्राथमिकता है. पर,जब एक अनदेखा वैश्विक 'शत्रु' सकल इंसानी अस्तित्व को ही लीलने पर उतारू हो,तब परस्परता ही सबसे बड़ी ताकत साबित हो सकती है.
परस्परता सूक्ष्म संवेदना की अनुभूति से पुष्ट होती है. इसलिए,राशन की दुकानों और राहत के ठिकानों पर खाद्यान्न सहेजने की आतुरता और घर पर बाल-बच्चों के साथ तृप्त होने की आश्वस्ति के बीच तनिक दूसरों के बारे में भी विचार लें. दूसरे,जो अपने ही हो सकते हैं.जो परिस्थितियों के मारे हो सकते हैं.जो घरों में कैद हो सकते हैं लहकती भूख की एक अनकही दास्तान के साथ!