By उमेश कुमार
उन स्वतंत्रता सेनानियों को खुशनसीब माना जाता है जिन्हें गुलाम हिन्दुस्तान में संघर्ष और आजाद भारत में सेवा का अवसर मिला. इस दृष्टि से रोहिणी के पं. बैकुण्ठनाथ झा एक खुशकिस्मत वतनपरस्त थे जिन्होंने पराधीन भारत में एक जुझारू सेनानी के रूप में अंग्रेज़ी सरकार के दांत खट्टे किये, वहीं स्वाधीन भारत में एक सजग शिक्षा पदाधिकारी के रूप में संताल परगना जैसे अविकसित क्षेत्र में शैक्षिक मानकों को नया संदर्भ दिया.
बहुत कम उम्र में अपने पिता पं. लक्ष्मीनारायण झा को खो देने वाले बैकुण्ठ बाबू का आरंभिक जीवन बहुत संघर्षों में बीता.इस क्रम में तकली पर बारीक सूत कातने वाले इस प्रतिभाशाली बालक पर जब सुनामधन्य सेनानी शशिभूषण राय की नजर पड़ी तो इनके जीवन को मानो नयी दिशा मिल गयी.शशि बाबू ने इस बालक का नामांकन ‘हिंदी विद्यापीठ’ में करा दिया. रहां तपोनिष्ठ देशव्रतियों के सान्निध्य में इनका भावी जीवन आकार लेने लगा.
अपने क्रांतिकारी जीवन का शुभारम्भ इन्होंने रोहिणी में ‘पैट्रियाटिक पार्टी’ बना कर की. इसका उद्देश्य विदेशी तंत्र पर निर्भरता समाप्त कर पारंपरिक ग्रामीण स्वशासन व्यवस्था को मजबूत बनाना था.
अपनी देशज अवधारणा को धरातल पर उतार कर इस पार्टी ने ऐसा तहलका मचाया कि पुलिस के कान खड़े हो गये.दिनांक ६ अगस्त,१९४२ ई. को पुलिस ने इन्हें इनके मित्र सर्वानंद मिश्र के साथ दुमका में गिरफ्तार कर लिया. बैकुण्ठ बाबू को दुमका हाजत में फरार साथियों का भेद और पता बताने के लिये अकथनीय यातनायें दी गयीं, लेकिन इन्होंने अपना मुंह नहीं खोला. दूसरे दिन जख्मी हालत में इन्हें दुमका जेल भेज दिया गया. अदालत से इन्हें लगभग दो साल की सजा मिली. इन्हें भागलपुर जेल भेज दिया गया था जहां के क्रूर फिरंगी जेलर ने ‘वंदेमातरम्’ गाने केे कारण न सिर्फ इनपर लाठियों की बौछार करवा दी, वरन् ‘सेल’ की सजा भी दे दी.
वहां इन्होंने संताल राजनीतिक बंदियों में एक नये प्रकार का इंकलाब पैदा किया.
देश की आजादी के बाद इन्होंने शिक्षा विभाग में योगदान किया और पदोन्नति करते-करते संताल परगना के जिला शिक्षा अधीक्षक पद पर प्रतिष्ठत हुये. पं. विनोदानंद झा की प्रेरणा से इन्होंने सीमा पुनर्गठन में ऐसा कमाल कर दिखाया कि संताल परगना का कोई भूभाग पश्चिम बंगाल(बृहद बंगाल) में नहीं जा सका.
बिहार सरकार ने प्रोत्साहन स्वरूप मिहिजाम सीमा रेखा पर इन्हें १० कट्ठा सरकारी जमीन दी. स्वाधीनता-संग्राम में उल्लेखनीय योगदान के लिये तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने इन्हें १५ अगस्त,१९७२ को ताम्रपत्र देकर सम्मानित किया. जीवन के अंतिम दिनों तक इनमें राष्ट्रीयता का ऐसा तरल भाव हिलोरें लेता रहा कि बोलते-बोलते रो पड़ते थे. दिनांक १८ अक्तूबर,२००७ ई. को इस प्रखर, पर भावुक सेनानी का देहांत हो गया.
(लेखक झारखंड शोध संस्थान, देवघर के सचिव है)