सीतामढ़ी/ बिहार।
यह कहानी है एक ऐसी महिला की जो विपरित परिस्थिति से हार नहीं मानते हुए जीवकोपार्जन के लिए नए विकल्प पर काम करने का ऐलान कर दिया. विकल्प ऐसा जिसकी कल्पना सामान्य परिस्थिति और ग्रामीण परिवेश में शायद ही कोई महिला सोच सके. सुखचैन देवी ने स्वावलम्बन और पुरुष से बराबरी की बात कागजी तौर पर नहीं करके उसे व्यवहारिक रूप देते हुए अब तक पुरुषों के लिए प्रचलित हजामत (बाल-दाढ़ी बनाने का काम) जैसे कार्य को करने का निर्णय लिया.
जी हां, मैं बात कर रहा हूं 35 वर्षीय महिला सुखचैन देवी की. पूरे इलाके में सुर्खियां बटोर चुकी सुखचैन देवी ने कोविड-19 के कारण उपजे हालात और सरकार द्वारा लागू लॉकडाउन के कारण परेशान हो गई थी. बच्चों से भरे परिवार के सामने भुखमरी की नौबत आ गई थी. मौटे तौर पर अबतक दैनिक मजदूरी करके पेट पालने वाले इस परिवार के पास काम और मजदूरी के नाम पर अब कुछ भी उपलब्ध नहीं था. आर्थिक तनाव से जूझने की स्थिति में सुखचैन देवी ने सामाज के स्थापित मान्यताओं और परम्परा को ठेंगा दिखाते हुए कुछ नया करने की शुरुआत कर दी. बिहार के सीतामढ़ी जिले की रहने वाली 35 वर्षीय सुखचैन देवी का पति रमेश ठाकुर असंख्य बिहारियों की तरह रोजी रोटी की तलाश में पंजाब में रहता है. वहीं से वह घर खर्च के लिए गांव पैसे भेज दिया करता था. मगर लॉकडाउन के कारण वह भी बेरोजगार हो गया. घर खर्च के लिए पैसे आने बंद हो गए. अब सुखचैन देवी के सामने बच्चों को खाने और पढ़ाने की चिंता सताने लगी. करीब महीने भर इंतजार किया, मगर कुछ नहीं बदला. बच्चे भूख से बिलबिलाने लगे. पति रमेश ठाकुर घर से हजारों किलोमीटर दूर बेरोजगार बैठा हुआ था. सुखचैन देवी आखिर कब तक भविष्य के भरोसे बच्चों को भूखा रखती. आखिरकार सीतामढ़ी जिले के बाजपट्टी प्रखंड में बसौल गांव की रहने वाली जाति से नाई कुल में जन्मी सुखचैन देवी जो बचपन से ही घर के पुरूषों को परम्परागत पेशा (ग्रामीणों को बाल-दाढ़ी या हजामत बनाना) करते हुए देख चुकी थी और कहीं न कहीं उसके दिलो-दिमाग में इस काम को करने की ईच्छा थी, कुछ नया करने का ऐलान कर दिया. सुखचैन ने घर में कुंध और भोथर पड़े हथियार में धार चढ़ायी और ऐलान कर दिया कि जिसे भी हजामत बनाना हो, उनका स्वागत है. गांव में यह खबर जैसे ही फैली, लोगों ने इस ऑफर को हाथों हाथ लिया क्योंकि लॉकडाउन के कारण गांवों और पास के बाजार के सभी सैलून बंद पड़े थे. पुरूष ग्रामीणों का हुलिया बिगड़ रहा था. उन लोगों के सामने अब नया और अनुपम विकल्प मौजूद था.
सुखचैन देवी कहती है, शुरू में थोड़ी सी दिक्कत हुई लेकिन अब हाथ बैठ चुका है और अब बिना किसी बाधा और हिचकिचाहट के वो किसी की दाढ़ी और बाल को साफ करने में देर नहीं लगाती है. उसकी ईच्छा है कि जब जीवन सामान्य भी हो जाए उसके बाद भी वो इस काम को जारी रखेगी. बल्कि वह चाहती है कि प्रशिक्षण के तौर पर उसे ब्यूटी पार्लर की ट्रेंनिग मुहैया कराया जाए और उसके बाद लोग उसके हाथों का कमाल देखें. सुखचैन देवी आज खुश है. बच्चों को भूखा नहीं रहना पड़ता है. केवल 4-5 घंटों की मिहनत से 250-300 रूपए की आमदनी हर दिन हो जाती है. पति रमेश ठाकुर को जब यह खबर मिली तो वह भी अपनी पत्नी के इस काम से हतप्रभ हो गया, मगर आज खुश है. रमेश कहता है कि भूखे और भीख मांगने से तो बेहतर है कि उसकी पत्नी पारिवारिक पेशा को ही आगे बढ़ा रही है.
ऐसा नहीं है कि लॉकडाउन के दौरान या उसके बाद सरकार प्रदत्त योजनाओं का लाभ उसे नहीं मिल रहा है. मगर उसे खुद के काम पर भरोसा है. आश्चर्य इस बात की है कि ग्रामीण भी उसके इस निर्णय की सराहना करते हैं. लॉक डाउन के समय अक्सर उसके घर के पास हजामत के लिए बच्चे-बुढ़े अपनी पारी का इंतजार करते दिख जाते थे. नि:सन्देह सुखचैन देवी ने एक नई परम्परा की शुरुआत कर दी है जो आने वाले समय में ग्रामीण परिवेश से जुड़े आधी आबादी के लिए नजीर साबित होगी।