देवघर।
हर संस्कृति अपने पुरखों का समादर करती है.क्रिश्चिनिटी में भी पुरखों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने की एक विशेष रीत है. आंतरिक भावशीलता के साथ इसका एक प्रकट रूप है. ईस्टर के अवसर पर कब्रगाहों की विशेष साज-सज्जा की जाती है. पुरखों की कब्र पर मोमदीप(मोमबत्ती) जलाकर उनके अवदानों के प्रति आभार व्यक्त करते हुए चिरंतन आत्मा की शांति की कामना की जाती है.
यह अफसोस की बात है कि 'ईस्टर' पर देवघर के एक ऐतिहासिक कब्रगाह की सुध लेने कोई नहीं आता। यह कब्रगाह गोपनीय शाखा (उपायुक्त कार्यालय) के पहले वाली पूर्वी गली में है। करीब 163 साल पुरानी यह कब्रगाह अपेक्षित देख-रेख नहीं होने के कारण झाड़ियों-जंगलों में खो सी गई है. पर, एक वक्त यह अंग्रेज अधिकारियों के लिए बहुत खास जगह हुआ करती थी. खासकर, समय-असमय साथ छोड़ जानेवाले परिजनों को अंतिम गति देने के लिहाज से.
इस छोटी सी कब्रगाह का निर्माण 1857 के गदर के समय हुआ था. आज जहां सदर एसडीओ साहब का आवास और 'इंग्लिश आफिस' आदि हैं, वहां कभी अंग्रेज हाकिमों के बसेरे हुआ करते थे. जब गदर की आग दहकी तो उसकी लपट में सबसे पहले ये बसेरे ही आए. दिनांक नौ अक्तूबर,1857 को बागी हिन्दुस्तानी फौजियों ने लेफ्टिनेंट एच.सी.ए.कूपर को उसके बंगले पर घेर लिया. उन्होंने बैनेट को उसके सीने में घोंप कर जमीन में गाड़ डाला! उस वक्त कूपर की उम्र 29 साल थी.कुछ और अंग्रेज भी मारे गए. बागियों के डर से रात को अंग्रेजों की लाशें मौके से नहीं हटाई गईं. उस दहशत भरी रात में देवघर के सियारों ने तमाम लाशों को नोच-खसोट डाला. सुबह दिवंगत अंग्रेजों के स्थानीय मातहतों ने उनकी लाशों के टुकड़े इकट्ठे किए और उन्हें इसी कब्रगाह में दफना दिया.
इसके पूर्व दिनांक 12 जून,1857 को बागियों के हाथों तलवार के घाट उतारे गए नार्मन लेस्ली बार्ट के अंत का एक मानवीय पक्ष भी है। अपनी सांस की डोरी टूटने के पहले वह मेजर मैकडोनाल्ड से कहता है- 'ओह मैकडोनाल्ड! इस तरह से मरना काफी दुश्वार है… बेचारी मेरी पत्नी और बच्चों का क्या होगा? ' इसपर मैकडोनाल्ड उसे दिलासा देते हुए कहता है- 'तुम्हारे पास चंद मिनटों का वक्त है. ईश्वर से प्रार्थना करो. तुम्हारे बच्चों और पत्नी के लिए जो कुछ संभव होगा, किया जाएगा.' मृत्यु के समय नार्मन लेस्ली की आयु 35 वर्ष थी.
हमने शायद साम्राज्यवाद और अंग्रेजशाही से जोड़कर इस कब्रगाह की अहमियत नकार दी.वर्ना यह भी विमर्श में रखा जा सकता था कि इंसान होने के कारण उन अंग्रेजों की आस्था भी कहीं टिकी थी और वे भी हमारी तरह अपने वतन के लिए ही लड़ रहे थे. इस बिना पर हम इस कब्रगाह में दफन एक मासूम बच्ची की स्मृतिशिला पढ़ेंगे तो एक अजीब से दर्द के अहसास में डूब जाएंगे. स्मृतिशिला के अनुसार,बच्ची का नाम अल्फ्रेंस फ्रैंक गाडबाल्ड था. उसका जन्म 22 मई, सन् 1903 ई.को और निधन 2 अगस्त,1903 ई.को हुआ था. इस बच्ची का हुकूमतशाही से कोई लेना-देना नहीं था. इसके निधन के बाद शोक-संतप्त परिजनों ने स्मृति-फलक पर कुछ भाव भरे शब्द उकेरे- 'मैं तुमसे कहता हूं कि स्वर्ग में उनके(परमपिता परमेश्वर) कोण(देवदूत) हमेशा चेहरे को निहारते हैं.'
इसी तरह की शब्दावलियां 49 वीं रेजिमेंट के कैप्टन जेम्स पैड्रिक मैक के बड़े लड़के थामस निथेनिएल मैक की कब्र पर उत्कीर्ण हैं. जब 5 मई,सन् 1882 को वह मरा तब 6 साल,10 महीने और 22 दिन का था. ऐसा नहीं है कि सबके मुकद्दर में कुछ ही बरस का जीना लिखा था. तभी तो डॉ.थामस पार्कर की विधवा ने 24 मार्च,1890 को जब अंतिम सांस ली तब 80 साल की पकी आयु में पहुंच चुकी थी. लोहे के घेरे के बीच पार्कर स्मिथ की खामोश कब्र के बारे में भी ऐसा ही कहा जा सकता है.
ये ज़मींदोज़ भी किन्हीं के पुरखे हैं, किन्हीं के अपने हैं. यहां सवाल देश-काल का नहीं, इंसानियत का है. इतिहास की रंजिशों और खुशफहमियों से निकल कर एक बड़े दायरे में सोचने का भी है. आशा है सुधी ईसाई समुदाय, समाजसेवी, जनप्रतिनिधि और जिला प्रशासन के समर्थ लोग पुरखों की इस ऐतिहासिक विरासत के पुनरुद्धार के लिए अवश्य आगे आएंगे.