देवघर।
कहते हैं,जब पेट की आग धधकती है तब इंकलाब आता है! इसलिए, दुनिया भर के सत्ता प्रतिष्ठान भोजन के सवाल पर काफी गंभीर दिखने की कोशिश करते हैं.इस लिहाज से हर दौर में भूख और भरण का सवाल अपनी अर्थवत्ता के नए आयाम प्रस्तुत करता है.
संताल परगना की बात करें तो सन् 1866 ई. में यहां भयंकर अकाल पड़ा था। इसके कोई दो बरस बाद सन् 1868 ई. में महान् कालीभक्त साधक और स्वामी विवेकानंद के आध्यात्मिक गुरु ठाकुर रामकृष्ण परमहंस रोहिणी (देवघर) पधारे थे.रोहिणी इस्टेट की सरहद में उन्होंने एक जगह दाने-दाने को तरसती रियाया (प्रजा) को देखा.तन पिंजर और आंखें निस्तेज। उन्होंने अपने धनी शिष्य मथुरामोहन विश्वास से इन 'दरिद्रनारायणों' के लिए भरपेट भोजन की व्यवस्था का आग्रह किया.पर, जब धनी शिष्य ने उनकी अनसुनी कर दी तो भोजन के सवाल पर उन्नीसवीं शताब्दी का शायद पहला मार्मिक सत्याग्रह ठाकुर ने यहीं किया!फलस्वरूप मथुरामोहन विश्वास भूख और भगवान की दूरी का एक नया अर्थ समझ सके।
स्व.भुवनेश्वर प्र.राव के साथ लेखक उमेश कुमार
रोहिणी की इस विलक्षण घटना के दौरान स्थानीय इस्टेट की बागडोर रानी कस्तूरा कुमारी (शासनकाल : सन् 1850 – 1911 ई.) के हाथों में थी. परंपरा के मूल तत्वों के साथ उन्हें आधुनिकता की भी गहरी समझ थी. उन्होंने अपने मैनेजर के माध्यम से संताल परगना के कमिश्नर सी.एच.बोम्पास से पत्राचार किया और अभावग्रस्त ग्रामीणों, विशेषकर किसानों-मजदूरों को जरूरत के समय सहायता उपलब्ध कराने के उद्देश्य से रोहिणी में एक अन्नागार (ग्रेनगोला) बनवाया.आज भी रोहिणी हाट-स्थल के निकट सन् 1903 ई.में बना रोहिणी ग्रेनगोला का पुराना भवन भोजन के अतीत को वर्तमान का संदर्भ दे रहा है.
साम्राज्यवादी दौर में जहां रोहिणी में देसी रजवाड़ों द्वारा भोजन की समस्या का सरकारी समाधान तलाशा गया, वहीं रिखिया के कुछ सामान्य जनों ने इस क्षेत्र में एक उल्लेखनीय सामुदायिक पहल की.गौरतलब है कि रिखिया वह गांव है जहां की खाद्य समस्या को स्वयं गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने पूरी गहराई से समझा था. उन्होंने प्रकृति, पर्यावरण और पठन-पाठन की त्रिवेणी के बीच सन् 1898,1905 -10 और 1933 ई.के मध्य 'विश्वभारती: शांतिनिकेतन' से लेकर 'दि देवघर ऐग्रीकल्चरल सेट्लमेंट कंपनी प्रा.लिमिटेड' की स्थापना के कई प्रयास रिखिया की रम्य धरा पर ही किये। पर,कई खास वजहों से उनका स्वप्न पूरा नहीं हो सका..
इस प्रसंग में रिखिया गांव के कुछ स्थानीय लोगों ने ग्रामोन्नयन में खाद्य-सुरक्षा को सांगठनिक आधार देकर एक मिसाल कायम कर दी.यह तथ्य उस अभिजातवर्गीय,अहंकारमूलक भावना को ध्वस्त करता है जिसके मुतल्लिक कहा जाता है कि सामाजिक सरोकारों की शिक्षा इन्हें सिर्फ 'बंगाली बाबुओं' से मिली और इन मूल निवासियों की प्रगतिशील दृष्टि उधार की या फिर आयातित रही.ऐसे में तीस और चालीस के दशक में यदि रिखिया के मूल निवासी भुवनेश्वर प्रसाद राव और गोपाल चन्द्र राव ने खाद्यान्न की समस्या का एक सार्थक हल निकाला तो यह उनकी मौलिक चेतना का ही परिणाम था.ये लोग नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के 'फारवर्ड ब्लाक' की नीतियों में यकीन रखते थे और महाजनी कर्ज के भारी बोझ से दबे किसानों को त्राण दिलाने के लिए सचमुच कुछ करना चाहते थे.इसके लिए इन्होंने एक समिति बनाई। इसे 'धनगोला' के नाम से जाना गया.समिति के लोगों ने सामुदायिक आधार पर गांव के अपेक्षाकृत सम्पन्न किसानों से प्रतिवर्ष अगहन मास में 5-10 'पैला'(अनाज मापने का उपकरण) चावल उगाहना शुरू कर दिया। इससे जो अधिशेष तैयार हुआ, उसे गूजो राउत के घर 'खोंचर' बनाकर रखा गया.समिति के लोग धनी गृहस्थों से बतौर चंदा 25 पैसा भी मांगा करते थे। पैसा जमा करने के लिए इन्होंने लोढ़िया श्मशान स्थित पोखर की वर्ज्य समझी जाने वाली मछलियों को भी पकड़ कर रिखिया हाट में बेचना शुरू कर दिया। ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था में सुधार लाने के लिए ये अंधविश्वास से जूझ गए। इस किस्म की प्रगतिशील मेहनत का नतीजा यह हुआ कि 3-4 वर्षों के भीतर समिति के पास 200 मन अनाज का एक अधिकोष तैयार हो गया.समिति ने नकद 700 रुपये भी जोड़ लिए जो समय के साथ बढ़ते रहे.
सर्वसम्मति से 'धनगोला' के लिए बनी ग्रामीणों की समिति का स्वरूप कुछ इस प्रकार था –
नाम पद
१) भुवनेश्वर प्रसाद राव सभापति
२) गोपाल चन्द्र राव सचिव
३)गूजो प्रसाद राउत रोकड़िया
४) मुकुटधारी राउत समिति सदस्य
५)लट्टू प्रसाद राउत समिति सदस्य
६)बुलाकी राउत समिति सदस्य
७) जगदीश प्रसाद राउत समिति सदस्य
८)तीतू राउत समिति सदस्य
९) विश्वनाथ मंडल समिति सदस्य
१०) भागवत राय समिति सदस्य
११) राजकुमार मिर्धा समिति सदस्य
१२)दुखचरण रमानी समिति सदस्य
१३)मेघर तुरी समिति सदस्य
१४)झगरू राय समिति सदस्य
१५) रामेश्वर रमानी समिति सदस्य
सेवाभावी सदस्यों से युक्त इस 'धनगोला' के माध्यम से उस दौर में भोज्य से जुड़े मामले में काफी कुछ किया गया.निर्धन लोगों की कन्याओं की शादी में अनाज की व्यवस्था के साथ कुछ नगद राशि की मदद भी दी जाने लगी.अभावग्रस्त, उपेक्षित लोगों की मृत्यु के बाद उनके दाह-संस्कार का काम भी 'धनगोला' के सदस्यों ने अपने हाथ में ले लिया.
एक उदाहरण आजादी के पहले दिवंगत पूरन राउत का है.'धनगोला' के कोष से ही उनका अंतिम संस्कार हुआ था.
सन् 1952 के आम चुनाव में अपने नेता और 'फारवर्ड ब्लाक' के प्रत्याशी पं.भुवनेश्वर पाण्डेय को विजय दिलाने के लिए 'धनगोला' के सदस्यों ने बिना माथे पर शिकन लाए धान को 'ढेंकी' पर कूटा और थोड़े से भिगोए चने और गुड़ के साथ निर्धारित क्षेत्रों में जाकर जनमत की नई जमीन तैयार की. रिखिया,ताराबाद,उदयपुरा,बिचगढ़ा, झिल्लीघाट और चुल्हिया के मतदान-केन्द्रों पर व्यवस्था का सारा दारोमदार 'धनगोला' के जीवट सदस्यों पर ही था.बाद में पं.भुवनेश्वर पाण्डेय ने शानदार जीत हासिल की.वे शुक्रिया अदा करने रिखिया आए और 'धनगोला' के सदस्यों को यह नेक सलाह दी कि वे जल्द से जल्द इसका निबंधन करा लें ताकि इसकी भावी उन्नति का मार्ग प्रशस्त हो सके.किंतु, लगातार अभावग्रस्त ग्रामीण परिवारों की मदद और खासकर पं. भुवनेश्वर पाण्डेय के चुनावी दौरे में 'धनगोला' के मनोनुकूल उपयोग से भरमाए इसके सचिव गोपाल चंद्र राव ने यह कहकर विरोध किया कि निबंधन के बाद उनके हाथ बंध जाएंगे और आफत के वक्त गरीब-गुरबों की वांछित मदद नहीं कर पाएंगे.सांगठनिक क्षमता के विकास के लिहाज से यह सही बात नहीं थी। उन्हीं दिनों रिखिया की जलवायु के प्रेमी, रवीन्द्रोत्तर युग के पुरोधा बांग्ला कवि विष्णु दे के सहयोग से अपनी अधूरी शिक्षा पूरी करने के लिए गोपाल चंद्र राव कोलकाता चले गए और अनुज रामचंद्र राव को स्थानापन्न कर गए. सन् 1955 ई. में रामचंद्र राव का दुमका में पंचायत सेवक के लिए चयन हो गया और रांची में प्रशिक्षण के तीन माह बाद वे पंचायत सेवक नियुक्त कर लिए गए.
कुसंयोग से,इसी बीच रोकड़िया गूजो प्रसाद राउत से रामचंद्र राव का झगड़ा हो गया और इन सब प्रवंचनाओं में फंसकर 'धनगोला' का सत्यानाश हो गया.
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