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देवघर के स्टूडियो …..

शंकर स्नेहिल   लेखक: शंकर स्नेहिल

देवघर के स्टूडियो …..

पता नहीं बिहार के और किस शहर में इतने सारे स्टूडियो होंगे ! 

सत्तर के दशक में, देवघर के हर गली-कूचे में एक न एक स्टूडियो हुआ करता था। उनकी दीवारों पर टंगी अनिवार्यरूप से बाबा मन्दिर के चित्र के साथ तरह-तरह की भंगिमाओं में बहुत सी पुरुष और महिलाओं की तस्वीरें हुआ करती थीं। कुछ तो तत्कालीन जनप्रिय चित्र अभिनेता-अभिनेत्रियों की और कुछ चेहरे प्रायः हर दुकान पर वही लोग गर्दन घुमाए उसी पोज़ में दिख जाते थे।

देवघर में बाहर से आनेवाले तीर्थयात्री और ज़्यादातर बंगाल से हवा बदलने आनेवाले 'डेंमचु बाबुओं'  के आगमन-निष्क्रमण का चक्र सालभर चलता रहता था। स्टूडियो वालों की भी इनसे अच्छी कमाई होती होगी। हवा बदलने आये इन बंगालवासी, इनके दिखावेवाले हाव-भाव और झुंड लगाकर घूमने की आदत से दूर से पहचाने जा सकते थे। इन्हें अक़्सर हम देवघरवासी Changer बाबू या डेंमचु बाबू कहकर पुकारा करते थे।

Changer शब्द तो समझ में आता था, पर डेंमचु का क्या मतलब होता है. एकबार हिम्मत बांधकर पालक पिता से पूछ ही लिया। 

वे  भोजपुरी मुस्कुराकर बोले " Damn Cheap से डेंमचु … सब्ज़ी से लेकर दूध-चिकेन-अण्डे-फलों तक इनकी पसंदीदा चीजों की क़ीमत कलकत्ता के मुक़ाबले देवघर में आधी हुआ करती थी. उस ज़माने तो इनकी ज़ुबान पर अंग्रेज़ी स्टाइल में Damn Cheap सुनते-सुनते स्थानीय लोग इन्हें 'डेमची' और 'डेंमचु' पुकारने लग गए थे।

स्टूडियो पर वापस आते हैं ….

इन स्टूडियो के मालिक अक़्सर बड़े दिलचस्प लोग होते थे। यथासाध्य साफ़-सुथरे, धुले और इस्त्री किये कपड़ों में, latest केश-विन्यास और वार्तालाप का अंदाज़ भीकिसी फिल्मी हीरो से मिलता जुलता। दोपहर के ख़ाली वक़्त पर अगर आप इनके पास पहुंच गए. पहले तो आधा घंटा – 45 मिनट- ये मुम्बई कब गए. किन हीरो हीरोइनों को देखा। दिलीप कुमार , जितेंद्र, जुहू किनारे राजेश खन्ना की कोठी की कहानी।

फ़िर Yashica से Kodak किन मापदंडों पर बेहतर है …

सारा सुनाने के बाद, फ़ोटो खिंचवाने के आपके तुच्छ अनुरोध पर गौर करते थे। इस बीच अगर कोई सज्जन अपनी बेटी की विवाह के लिए उसे लेकर फ़ोटो खिंचवाने आ धमके या इनका कोई विशेष ग्राहक ने पदार्पण किया तो आप प्रतीक्षा श्रेणी में आ गए। उनके विदा होने के बाद ही आपका प्रवेश पीछेवाले अन्धेरे कमरे में होता था। 

फ़िर तेज़ रोशनी जलाकर, reflector छातों को adjust करने के उपरान्त आपको stool पर बैठने की इजाज़त मिलती थी। उसके बाद आपके चेहरे को  थोड़ा ऊपर – नीचे, दाएं – बाएं घुमाकर , आपके कन्धो को कभी अपने हाथ से दबाकर। तरह-तरह के निर्देशों देकर यह स्पष्ट कर देते थे कि फ़ोटो खींचना कोई आसान काम नहीं होता।

अंततः, खचाक की आवाज़ और फ़िर ' बाहर आबि जा…', का निर्देश।

कई भारी नामी स्टूडियो भी थे, उनके rates भी ऊँचे ….

नवयुग पुस्तकालय के पाससड़क की दूसरी ओर एक बड़ा  कल्पना स्टूडियो याद आ रहा है। उनके मालिक का नाम बिजय भैया और अरुण भैया अब, इनसे हमारा पाला कम ही पड़ता था। कभी किसी परीक्षा का फॉर्म भरना हो या कहीं दाखिला लेनी हो तभी passport size फ़ोटो की आवश्यकता होती थी।

मौका ऐसा ही था , मैट्रिक परीक्षा के फॉर्म भरने थे। तीन कॉपी photo के ढाई रुपये। पच्चास पैसे स्कूल का फ़ीस भरनेवाले के लिए रुपये 2. 50 निःसंदेह बड़ी रकम थी। तो हम परीक्षार्थी आपस में विचार-विमर्श, मंथन में लगे थे कि कौनसा स्टूडियो ठीक रहेगा?

किसके कितने रेट हैं ?आदि।

हालाँकि पालक पिता ने बड़ा बाजार फाइन फोटो स्टूडियो में जाने को कह दिया था, जो उनके जान पहचान,,,, पर हमें तो एक बेहतरीन photographer की तलाश थी।

ढाई रुपये देकर बार-बार फ़ोटो खिंचवाने के ऐसे मौक़े , ज़िन्दगी में, इतनी आसानी से नहीं आते। तो एक रोज़ टिफ़िन के अवकाश के वक़्त मैं और मेरा दोस्त लाल बहादुर मिलकर सोचे कि क्यों न हम अपनी ओर से भी थोड़ी छानबीन करें?

उन दिनों, R Mitra School के ठीक सामने, सड़क के उस पार, पोस्ट आफिस से सटे एक दुकान में एक नया नया स्टूडियो खुला था जो कि शंकर भैया का था, जो मुझसे स्नेह रखते थे. दोनों , वहाँ जा पहुँचे।

सुधीगण, उस रोज़ हम टिफ़िन न खा पाये।

स्टूडियोवाले शंकर भैया ने फ़ोटो खिंचने में उनके चमत्कारिक महारथ की आख्यान सुनाते-सुनाते हमें मुम्बई की हरेक स्टूडियो की सैर करा डाली। हम सिर्फ़ प्रभावित नहीं, मंत्रमुग्ध हो गए। हमें फ़ोटो का जादूगर मिल गया था। मन ही मन हम दोनों ने तय कर लिया कि अब फ़ोटो तो हम इन्हीं से खिचवाएँगे।

पैसे तो जेब में थे ही, स्कूल खत्म होने के बाद हम वहीं मिले और फ़िर फ़ोटो खिंचवाई। आज digital का ज़माना है। 10 मिनट में फ़ोटो बनकर तैयार हो जाता है। उस ज़माने में, ख़ासा इंतज़ार करना पड़ता था। कम से कम दो दिन का। और अगर छोटा स्टूडियो हो तो उसके 12-16 फ़ोटो का रील खत्म होने के बाद , एक साथ सारे फ़ोटो develop करता था। इसमें कभी सप्ताह भी लग जाता था।

ख़ैर ,

में मात्र दो दिनों के बाद ही बुलाया गया था। किशोर दिलों पर उन दो दिनों के इंतज़ार ने कहर ढाना शुरू कर दिया था। इतनी व्याकुलता ….

बेसब्री …

बेक़रारी ……..

अपनी तस्वीर से कब रूबरू हो पाऊँगा, दिल में उमंग की लहरें हिचकोले मार रही थी।

बीच में , एकबार मैं पता करने भी चला गया। स्टूडियोवाले शंकर भैया ने बोला कि वह वचन का पक्का है , फ़ोटो वक़्त पर ही मिलेगा। दूसरे दिन शाम पांच बजे। आख़िर , दूसरे दिन वह शुभ घड़ी आ ही गई। ठीक पांच बजे , दोनों मित्र दुकान के counter पर पहुंचे।

हमें देख स्टूडियो के फोटोग्राफर साहब मुस्कुराये। Drawer खोलकर, दो लिफ़ाफे निकाले। फ़िर बोले , ' रसीद?'

हम दोनों बालक तुरन्त ही रसीद और बाक़ी के डेढ़ रुपये उनके आगे रख दिए। उन्होंने भी हल्के हरे रंग के दो लिफ़ाफेजिनपर हमारा नाम भी जड़ा था, हमें दे दिये।

धड़कते दिल और कांपते हाथों से हमने अन्दर से फ़ोटो बाहर निकाले –

ओह …

शायद यह ज़िन्दगी का पहला झटका था।

किसकी तस्वीर थी मेरे आगे ?

गर्दन से चिपका हुआ ठियोड़ी, गालों पर काले साये, चेहरे पर मुस्कुराहट की जगह मुरझाहट !

मैंने अपने आंख के कोने से बगल में खड़े मेरे मित्र की ओर देखा। उसके चेहरे पर भी घोर हताशा और confusion साफ़ झलक रहा था। शायद, हम दोनों एक ही साथ बोल पड़े होंगे – भैया फोटुआ ठीक नहीं आया. 

स्टूडियोवाले शंकर भैया बोले –

" हम्मर की गलती छे ? तोरानीक दिलीप कुमार कहाँस बनाये दिए? जे रंग चौखट छे , वहे रंगक तस्वीर .. कि करिए ..'

हम लोगो ने दुखित होकर…. हम दो किशोर बालक  फोटो लिया। वह फ़ोटो आज भी मेरे पास है।

खत्म करता हूँ …

इस घटना से एक सिख ज़रूर ली थी। अब कभी पिता की बात का अवहेलना नहीं करूंगा।

लेखक,शंकर स्नेहिल … पेशे से इंजीनियर हैं. 

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