पाकुड़:
शहीदों की चिताओं पर जुड़ेंगे हर बरस मेले, वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशाँ होगा। यह स्लोगन पाकुड़ में बेईमानी साबित हो रहा है।
सन् 1855 में संथाल विद्रोह के वक्त अग्रेजों द्वारा रातों-रात मार्टिलो टावर का निर्माण करवाया गया था. इस टावर के बने 153 वर्ष बीत चुके हैं। आज भी मार्टिलो टावर 153 साल पहले हुयी क्रान्ति की गवाही देता खड़ा है. इस टावर में 52 छेद हैं, जिसके माध्यम से अंग्रेजों ने फायरिंग कर उस दौरान तकरीबन दस हजार संथाल क्रांतिकारियों को रोका था। जिसमें हजारों क्रांतिकारी शहीद हुए थे। मॉर्टिलो टॉवर से एक ओर जहां अंग्रेज छिपकर गोलियों की बौछार करते थे, वहीं संथाल क्रांतिकारी अपने बचाव मेें महज पारंपरिक हथियार तीर-धनुष पर ही आश्रित थे।
देश में क्रांति की शुरुआत 1857 मानी जाती है, लेकिन झारखंड में दो साल पहले 1855 को ही अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल बज उठा था, जिसे संताल हूल कहा गया। आदिवासियों ने 30 जून 1855 को भारत की प्रथम क्रांति की बिगुल फूंकी थी. इसलिए 30 जून के दिन को हूल दिवस के रूप में जाना जाता है. संताली में हूल शब्द का अर्थ है- विद्रोह। यह अन्याय के खिलाफ संघर्ष की प्रेरणा देता है।
मॉर्टिलो टावर को अंग्रेजों ने हूल क्रांति के दौरान निर्माण करवाया था। संथाल हूल क्रांति के दौरान अंग्रेज सर मार्टिन ने अपने बचाव में मार्टिलो टावर का निर्माण रातों-रात करवा दिया था। महाजनी व्यवस्था अंग्रेजी शासन के विरुद्ध संथाल क्रांतिकारी सिद्धो-कान्हू, चांद-भैरव चारों भाइयों के नेतृत्व में लगभग 50 हजार आदिवासियों ने 30 जून 1855 को भारत की प्रथम क्रांति का बिगुल फूंका था।
क्रांति के बाद अंग्रेजों ने साहेबगंज से भाग कर पाकुड़ में शरण ली और हूल क्रांति के विरुद्ध मार्शल लॉ भी लगाया गया। इसी दरम्यान अंग्रेजों द्वारा मॉर्टिलो टॉवर का निर्माण कराया गया था। जब क्रांतिकारी अंग्रेजों की ओर बढ़ते तो अंग्रेज सैनिक इसी टावर में घुसकर गोलियों की बौछार कर देते। आदिवासी क्रांतिकारी अपने पारंपरिक हथियारों से अंग्रेजों का सामना नहीं कर पाते थे।
संताल विद्रोहयो पर इसी टावर से अंग्रेजी हुकूमत ने गोलिया बरसाई थी। लेकिन अपने अदम्य साहस के बलबुते संताल युवाओं ने अंग्रजों के छक्के छुड़ा दिए थे। अंग्रेज़ों की गोलियो पर संतालों की तीन धनुष भारी पड़ गई थी। अंग्रेजों को हार का सामना करना पड़ा था।
उपेक्षा का शिकार मॉर्टिलो टावर:
लेकिन 1857 की क्रांति के बाद से यह टावर वीरान पड़ा रहा। कुछ वर्षों बाद टावर खण्डहर में तब्दील होने लगा। न कोई प्रशासन, न कोई राजनीतिक पार्टी के लोग इसकी सुधि लेते है। पाकुड़ में स्थित रातों-रात बना मॉर्टिलो टावर आज भी हूल दिवस की गवाही देता है. लेकिन प्रशासन इसकी कोई सुधि नहीं ले रहा है। सिद्धू-कान्हो पार्क के निकट स्थित मॉर्टिलो टावर को अभी तक राष्ट्रीय पहचान दिलाने का कोई प्रयास नहीं किया गया।1857 की क्रांति का गवाह बना यह टावर आज भी उपेक्षा का शिकार है।