देवघर/मधुपुर:
जी हां, जब धरती पर कहीं-कहीं जल संकट 'लेवल छह' पर आ गया है, पानी की इतनी किल्लत हो गयी है कि सरकारें पानी के बूंद-बूंद का हिसाब रखने लगी है. कैपटाउन से लेकर इथोपिया तक सूखे और जल संकट की समस्या विकराल हो उठी है. वहां झारखंड के संताल परगना के कस्बे नुमा शहर मधुपुर में पानी बचाने की एक ऐसी एक्टिविटि 1885 में हुई जिसके कारण मधुपुर के कई इलाकों में भीषण गर्मी में भी पानी न केवल मौजूद रहता है बल्कि लोग उस पानी के ताज़ेपन और टटकेपन का आनंद कई लेवल पर लेते हैं.
मधुपुर के गांधी चौक का मुंशी नबी बक्श कुआं बहुत बड़ी प्रेरणा का भी श्रोत बन सकता है वह भी ऐसे समय में जब पृथ्वी लगातार गर्म हो रही हो और सूखे व जल संकट से दुनिया के कितने ही इलाकों में हाहाकार मच जाता है. उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध और बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में कई सूखे और अकाल फ़ेस करने वाले मधुपुर में पानी के सवाल पर कई जनांदोलन हुए पर संभवत: 1885 का वह आंदोलन काबिल-ए-गौर है जिसने मधुपुर और उसके आसपास के दर्जनों गांवों को पानी बचाने की चेतना से जोड़ दिया.
आंदोलन का गवाह है मुंशी नबी बक्श कुआं :
वर्ष 1885- मधुपुर में अप्रैल में जेठ बैसाख की एक जानलेवा गर्मियों की शाम।
एक-एक करके सारे तार तलैये, तालाब, कुएं सूख रहे थे. पानी ज़मीन के काफी नीचे सरक गया था. यह अकाल और सूखे का संकेत था. पानी के लिए हाहाकार मच गया था. धरती तप रही थी और आसमान आग उगल रहा था. ठीक ऐसे में एक शाम आज जहां महात्मा गांधी की मूरत लगी है, ठीक उसके पीछे तब परती ज़मीन थी, अचानक लोग जुटने लगे. ये सभी आसपास के ग्रामीण और किसान थे. सभी बैलगाड़ी से आए थे. नेमोबाद, पथरचपटी, विलायती बंगला, सपहा, लालगढ़, चांदमारी, खलासी मुहल्ला, लखना, भेडवा, टिंटहिया बांक, फुलची, बागों, गोनैया वैगेरह.. हर तरफ से किसान जुटे. हाथों में फावड़ा और गैंता. ये सभी जुटे थे रातभर जागकर एक कुएं की खुदाई करने.
यह एक रात की लगन और प्यास से संघर्ष की बेमिसाल दास्तां है दोस्तों :
एक पूरी रात लोगों ने सामूहिक श्रम द्वारा कुएं की खुदाई की. इसका कारण था कि कुछ लोगों को आपत्ति थी कि वहां पर कुआं नहीं खुदे. पर मधुपुर की प्यासी जनता के लिए मुंशी नबी बक्श साहेब ने भी ठान लिया था कुछ. उनकी जिद थी कि कुआं वहीं खुदेगा. वे सोच रहे थे कि वहां से पानी निकले और उनके रैयत की प्यास बुझे. मुंशी नबी बक्श कई दृष्टियों से 'मधुपुर के पहले पानी पुरूष हैं और बेशक मधुपुर की अवाम को इस 'दरियादिल इन्द्र' के प्रति अपनी कृतज्ञता जाहिर करनी चाहिए. आखिर मुंशी नबी बक्श साहेब के ही कॉल पर ये तमाम ग्रामीण एवं किसान इकट्ठा हो गये थे.
क्या हुआ था उस रात :
अंग्रेजों की हुकूमत थी. इलाक़े में धारा 144 जैसी स्थिति पैदा कर दी गयी थी. पर मधुपुर को पानी चाहिए था,जैसे भी. परिणाम यह हुआ कि शाम चार बजे गांधी चौक वाले कुएं की खुदाई शुरू हुई और सुबह पौ फटते-फटते उसमें पानी निकल आया. हर किसान मात्र दस मिनट ठहरता. गैंता-फावड़ा-कुदाल से मिट्टी काटता. अपनी बैलगाड़ी पर मिट्टी लादकर लौट जाता. तब उसकी जगह पर दूसरी बैलगाड़ी वाला किसान कुएं की खुदाई में लग जाता. मुंशी नबी बक्श ने दही-चूड़ा खाने का भी इंतज़ाम करवा दिया था. किसान कुआं कोड़ते, मिट्टी बैलगाड़ी पर लादते और दही-चूड़ा खाकर घर रुखसत हो जाते. यह सिलसिला रातभर चलता रहा. ठीक 14 डाउन ट्रेन के आने से पहले तक. तब देवघर के अनुमंडल पदाधिकारी 14 डाउन ट्रेन से ही मधुपुर पंहुचे और निषेधाज्ञा वाले उसी स्थान का निरीक्षण किया पर वहां तब कोई नहीं था जिसे गिरफ्तार किया जाता. सभी ग्रामीण और किसान अपने-अपने घरों को लौट चुके थे और उनकी रात भर की मेहनत से खुदा हुआ कुआं पानी से भरा छलछला रहा था..
आज भी देता है ठंढेपन का एहसास:
सन् 1885 में मधुपुर का वह जल आंदोलन और उसका वह जल प्रतीक-वह ऐतिहासिक कुआं आज न केवल साबूत है बल्कि ज़िंदा भी है और ताबिंदा भी. आज भी मधुपुर बाज़ार इलाके का यह प्रमुख जल केंद्र है. पनभरवे पानी भर-भर कर घरों, दुकानों पर पंहुचाते हैं. गांव से आने वाले तनिक देर सुस्ता लेते हैं, भीषण गर्मियों में आप आकर बैठिए यहां तो आपको ठंढेपन का एहसास होगा.
आज जहां भी पानी के लिए लोगों को परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है उनके लिए यह जन सहभागिता और एक शख्स की अनूठी पहल के लाजवाब उदाहरण से क्या कम है.