रिपोर्ट:मनीष दुबे
देवघर:
झारखंड की सांस्कृतिक राजधानी बैद्यनाथ धाम देवघर, जहाँ हर पर्व बड़े ही उमंग और उत्साह के साथ मनाया जाता है। ये देवो के देव महादेव की नगरी है, यहाँ की होली अन्य जगहों से थोड़ी अलग होती हैं। यहाँ होली दो दिन मनाया जाता है,पहले दिन गुलाल और दूसरे दिन रंगों से। यू तो होली बसंत ऋतु के आगमन से ही प्रारंभ हो जाता है,लोग एक दूसरे को गुलाल लगा के खुशी व्यक्त करते है, पर बसंत ऋतु के पूर्णिमा के दिन की होली का विशेष महत्व हैं। बाबाधाम मे कोई भी त्योहार का प्रारंभ बाबा भोलेनाथ की मंदिर से होता हैं। होली दिन दिन बहुत ही विशेष रूप से हरी-हर मिलन के बाद बाबा को गुलाल लगाने की परम्परा रही है, ऐसे मे यहाँ के स्थानीय लोग पहले बाबा भोलेनाथ को गुलाल चढ़ाते हैं, फिर मंदिर के ही प्रांगण में स्थित राधे कृष्ण की मूर्ति पे गुलाल चढ़ाते हैं, तत्पश्चात अपने मित्रों या सगे संबंधी के साथ एक दूसरे को बड़े प्यार से गुलाल लगा के खुशी वक्त करते हैं।
होली मनाई क्यों जाती हैं..
होली त्यौहार के बारे मे तो कई कथाएं प्रचलित है, लेकिन इनमे से सबसे ज्यादा प्रहलाद और होलिका की कथा सबसे ज्यादा मान्य और प्रचलित हैं, प्रहलाद श्रीहरी विष्णु का परम भक्त था। प्रहलाद के पिता दैत्यराज हिरण्यकश्यप नास्तिक और निरकुंश था। उसने अपने पुत्र प्रहलाद से विष्णु भक्ति छोड़ने के लिए कहा लेकिन प्रहलाद ने अपनी विष्णु भक्ति नहीं छोड़ी। इसके बाद हिरण्यकश्यप ने अपने बेटे प्रहलाद की भक्ति को देखते हुए उसे मरवा देने का निर्णय लिया। किन्तु हिरण्यकश्यप की सारी कोशिश सफल नहीं हो सकी। इसके बाद हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन होलिका को यह कार्य सौपा। हिरण्यकश्यप की बहन को यह वरदान प्राप्त था कि वह आग मे कभी जल नहीं सकती। हिरण्यकश्यप के आदेश पर होलिका प्रहलाद को जलती हुई आग पर लेकर बैठ गई। आग मे बैठने से होलिका तो जल गई, लेकिन प्रहलाद बच गया। इसलिए प्रहलाद कि याद में इसदिन होली जलाई जाती है। प्रहलाद का अर्थ आनंद होता है। वैर व उत्पीड़न कि प्रतीक होलिका (जलाने की लकड़ी) जलती है, प्रेम और उल्लास का प्रतीक प्रहलाद (आनंद) अक्षुण्ण रहता है। इसलिए यह त्यौहार मनाया है।
दूसरी पौराणिक कथा के अनुसार
होली त्यौहार राक्षकी ढूंढी, राधा कृष्ण के रास और कामदेव के पुनर्जन्म से भी जुड़ा हुआ है। कुछ लोगो का मानना है कि होली में रंग लगाकर और नाच-गाकर लोग शिव के गणों का वेश धारण करते है और महादेव शिव कि बारात का दृश्य बनाते है। कुछ लोगो का यह भी मानना है कि भगवान श्रीकृष्ण ने इस दिन पूतना नामक राक्षकी का वध किया था। इस खुशी में गोपियों और ग्वालों ने रासलीला कि और रंग खेला था।
कैसे मनाई जाती है होली
होली का पहला काम झण्डा या डंडा गाड़ना होता है, झंडे या डंडे को किसी सार्वजनिक स्थल मे गाड़ा जाता है। इसके लिए काफी दिन पहले से ही यह तैयारियां शुरू हो जाती है। होली का पहला दिन होलिका दहन कहलाता है । इस दिन चौराहों पर या कही पर आग के लिए लकड़ी इकट्टी की जाती है और होली जलायी जाती है। इसमे प्रमुख रूप से लकड़ियाँ और उपले होते है। लकड़ियों व उपलों से बनी इस होली का दिन से ही विधिवत पूजा शुरू हो जाती है। घरों मे पकवान बनाए जाते है और उनका यहाँ भोग लगाया जाता है शाम को सही मुहूर्त पर होली का दहन किया जाता है। इस आग मे नई फसल की गेहूँ की बलियों और चने के होले को सैका जाता है। होलिका दहन समाज की समस्त बुराइयों के अंत का प्रतीक है। यह बुराइयों पर अच्छाइयों की विजय क्का सूचक है। लोग देर रात थ गीत गाते है और नाचते है।
होली के अगले दिन को धूलंडी कहते है। इस दिन लोग रंगो से खेलते है। सुबह ही सब अपने मित्रों और रिश्तेदारों से मिलने पहुँच जाते है,गुलाल व रंगो से फिर इनका स्वागत किया जाता है और उन्हे फिर पकवान खिलाये जाते है। इस दिन सतरंगी रंगों के साथ सात सुरों का अनोखा संगम देखने को मिलता है। रंगों से खेलते समय मन में खुशी,प्यार और उमंग आ जाती है । यह त्यौहार दुश्मनी को दोस्ती के रंग में रंगने वाला त्यौहार है। बच्चे पिचकारियों से रंग छोड़कर अपना मनोरंजन करते है । सभी होली के रंग मे एक समान दिखते है। रंग से खेलने के बाद दिन तक लोग नहाते है और शाम को नए वस्त्र पहनकर सबसे मिलने जाते है।होली के दिन खीर, पूरी, मिठाइयाँ आदि व्यंजन बनाए जाते है। इस त्यौहार पर कांजी,भांग प्रमुख पेय है।
कृष्ण की नगरी में होली…
मथुरा और वृंदावन मे भी 25 दिनों तक यह त्यौहार मनाया जाता है । कुमाऊँ की गीत बैठकी में शास्त्रीय संगीत की गोष्ठियाँ होती है। यह होली कई दिनों पहले ही शुरू हो जाता है। इन दिनों पूरा मथुरा रंगों मे डूबा से लगता है,बड़ा ही अलौकि दृश्य मथुरा में देखने को मिलता हैं।