डॉ रीता सिंह
प्रत्येक शब्द के अपने स्थायी भाव होते हैं। यह शब्दों का प्राण तत्व है। भाव ही शब्दों को पहचान देता है। भाव के आधार पर ही शब्द आकार पाता है। बोली, शब्दों के माध्यम से आपके भाव का प्रदर्शन है।संस्कृत के विद्वानों ने भाव को बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है। साहित्य का रस सिद्धान्त की मुख्य अवधारणा ही भाव है। भाव तत्व के कारण ही आध्यात्मशास्त्र, नैतिकशास्त्र, साहित्य विज्ञान आदि की विशिष्ट पहचान है।
संस्कृत के विद्वान आचार्य विश्वनाथ ने अपने ग्रन्थ साहित्य दर्पण में ने लिखा है कि ह्रदय का स्थायी भाव जब विभाव, अनुभाव और संचारी भाव से सहयोग प्राप्त कर लेता है तो रस रूप में निष्पन्न हो जाता है।रस क्या है?रस यानी सार-तत्व या निचोड़। इसे स्थूल रूप में सन्तरा के उदाहरण से समझा जा सकता है। सन्तरा को निचोड़कर निकाला गया जल तत्व उसका रस है। स्थूल रूप में इसे भोजन, फल, सब्जी आदि के स्वाद से महसूस कर सकते हैं। प्रत्येक रस के अपने स्थायी स्वाद होते हैं, यही उसका भाव है। इसी तरह प्रत्येक शब्द भी रस से सराबोर हैं। जिनके स्थायी भाव भी हैं।
आचार्य भरत मुनि ने कहा, विभावानुभावव्यभिचारी-संयोगद्रसनिष्पति अर्थात विभाव, अनुभाव तथा संचारी भाव के संयोग से रस की निष्पति होती है। इस तरह भरत मुनि के रस सिद्धान्त में चार प्रकार के भाव की चर्चा आई, जिनके संयोग से रस की उत्पत्ति होती है।विभावअनुभावसंचारी भाव और स्थायी भावविभाव – वह कारण, जो व्यक्ति के ह्रदय में स्थित भावों को जगाता है, विभाव कहलाता है। यह दो तरह से काम करता है। एक उद्दीपक के रूप में, दूसरा आलंबन के रूप में। उद्दीपन विभाव – उद्दीपन यानी किसी चीज़ को बढ़ाने वाला कारण। मन के स्थाई भाव को तेज़ करने वाले कारण उद्दीपन विभाव कहे जाते हैं।
यह कारण देश, काल, परिस्थिति आदि कुछ भी हो सकता है। यह विभाव मन के स्थायी भावों को सकारात्मक या नकारात्मक भाव देते हैं।शारदातनय ने इसके आठ भेद बताये हैं – ललित, ललिताभास, स्थिर, चित्र, रूक्ष, खर, निन्दित तथा विकृत।
मन को प्रसन्नता और सकारात्मकता प्रदान वाले उद्दीपन विभाव को ललितोद्दीपन विभाव कहते हैं।
ललिताभास, ललित या मनोहर भावों का आभास उत्पन्न करते हैं। ये प्रत्यक्ष नहीं होते हैं। पूर्व के सुने हुए घटनाओं, स्मरण, या दृश्य वस्तुओं आदि से उतपन्न भाव ललिताभास उद्दीपक विभाव हैं।
स्थिर उद्दीपन विभाव मन में स्थिरता का भाव पैदा करते हैं। ऐसे उद्दीपन मन में हमेशा बना रहता है। विचित्र अनुभवों के उद्दीपन करने वाले विभावों को विचित्र विभाव कहते हैं।करुणा के भाव को उत्पन्न करने वाले विभावों को रूक्ष विभाव कहते हैं।कातरता या रुद्र भाव के उद्दीपक विभावों को खर विभाव कहते हैं।निन्दा के भाव उत्पन्न करने वाले उद्दीपकों को निन्दित विभाव कहते हैं।
भय के भाव के उत्पन्न करने वाले विकृति उद्दीपक विभाव कहते हैं।आलम्बन- जिस विशेष कर्म, व्यक्ति, व्यवस्था या परिस्थिति के कारण भाव विशेष का जागरण होता है, वह उस स्थायी भाव जागरण का आलम्बन कहलाता है। दूसरे शब्दों में आपके भीतर जो स्थाई भाव जगता है उसका कारण कभी कोई व्यक्ति हो सकता है , कभी कोई वस्तु हो सकती है या कभी कोई परिस्थिति हो सकती है, यह व्यक्ति, वस्तु, परिस्थिति आलम्बन विभाव कहलाता है। अनुभाव – अनुभाव – जिसके मन में स्थाई भाव जागता है जैसे कृष्ण के मन में सुदामा को देख कर शोक का भाव जागृत हुआ उसके बाद उनकी आँखों से आँसू बहने लगे, आँसू बहना अनुभाव है। स्पष्ट है कि आश्रय की चेष्टाएँ अनुभव कहलातीं है।
परशुराम का ग़ुस्से से बोलना, फरसे को सम्भालना, दाँत पीसना, आदि अनुभव है।अनुभाव दो प्रकार के होते हैं :-(अ) साधारण अनुभाव :- कोई भी भाव उत्पन्न होने पर जब आश्रय (जिसके मन में भाव उत्पन्न हुआ है) जान- बूझ कर यत्नपूर्वक कोई चेष्टा, अभिनय अथवा क्रिया करता है, तब ऐसे अनुभाव को साधारण या यत्नज अनुभाव कहते हैं।जैसे :- बहुत प्रेम उमड़ने पर गले लगानाक्रोध आने पर धक्का देना आदि साधारण या यत्नज अनुभाव हैं।(आ) – सात्विक अनुभाव :- कोई भी भाव उत्पन्न होने पर जब आश्रय (जिसके मन में भाव उत्पन्न हुआ है) द्वारा अनजाने में अनायास, बिना कोई यत्न किए स्वाभाविक रूप से कोई चेष्टा अथवा क्रिया होती है, तब ऐसे अनुभाव को सात्विक या अयत्नज अनुभाव कहते हैं।जैसे – डर से जड़वत् हो जाना, पसीने पसीने होना, काँपनाचीख पड़ना, हकलाना और रोना आदि सात्विक या अयत्नज अनुभाव हैं।
किसी हँसते हुए व्यक्ति को देखकर हँसी आना। अनुभव का अर्थ है यह कि जब किसी के हृदय में कोई भाव उत्पन्न होता है और उत्पन्न भावों के परिणाम वह गुस्सा करता है या कोई क्रिया करता है और जो चेष्टा करता है या उसमें जो क्रियात्मकता आती है , उसे अनुभाव कहते हैं।भाव की यह सारी अवस्था एक विशिष्ट ऊर्जा का निर्माण करती है, जिससे व्यक्ति का व्यवहार संचालित होता है, उसकी नैतिकता निर्धारित होती है। भावों का अनुशासन जितना प्रबल होगा, ऊर्जा उतनी ही व्यवस्थित होगी और जीवन उतना ही सुखमय होगा।
(लेखिका डॉ रीता सिंह, डिपार्टमेंट ऑफ एजुकेशन ए.एन. कॉलेज, पटना की विभागाध्यक्ष है.संपर्क ईमेल – [email protected])